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सोमवार, 7 सितंबर 2009

पूड़ी वाले कक्का

गाँव हमारी संस्कृति को आज भी प्रतिबिंबितकरते हैं , जहाँ आज भी लोग एक दूसरे के सुख -दुःख में सहभागी होते हैं । हमारे गाँव में एक बुजुर्ग महाशय थे - .सबके परिवारों की पूरी ख़बर उन्हें रहती थी । वे गाँव के चलते - फिरते विश्वकोष थे । बड़े ही अधिकार के साथ वे हर घर में पहुँच कर कुछ भी खाने -पीने का आदेश देते थे ,मजाल कि कोई भी जरा सी भी ना -नुकुर कर जाए .किसी भी परिवार के किसी भी मसले पर उनकी राय सर्वोपरि होती थी ।
उनका नाम पूडी वाले कक्का क्यों पड़ा ? इसके बारे में बुजुर्ग बताते हैं कि कक्का को विविध आयोजनों में व्यवस्था करने का बहुत शौक था । गाँव में किसी के घर कैसा भी आयोजन हो – विवाह ,रामायण या अन्य धार्मिक कार्यक्रम एवं तेरहीं आदि ,भोजन बनवाने में कक्का स्वयं जिम्मेवारी सभांल लेते थे ।कहीं का भी हलवाई आये, उसे कक्का के निर्देशन में काम करना ही पड़ता था । कक्का मनोयोग से गरम -गरम करारी पूडियां सिकवाते थे ,मजाल कि कोई पूडी कच्ची रह जाए . वे ख़ुद भी कभी -कभी इन्हें बनवाने में सहयोग भी करते थे .
समय के प्रवाह में कक्का बूढे हो गए ,पर उनकी समाजसेवा में जरा भी कमी नहीं आयी । .नये ज़माने के लड़कों को कक्का का हस्तक्षेप पसंद नहीं था । पर कक्का की सामाजिक स्वीकृति के कारण वे चुप रह जाते थे ।
गाँव के पटवारी रामखिलावन के बच्चे काफी होनहार निकले थे। बड़ा बेटा विदेश में इंजीनियर था । वह अपने गाँव अपने परिवार के साथ आया था . सारा गाँव खुशी से झूम रहा था ,आख़िर रामखिलावन के नाती के मुंडन का भोज जो था । शहर के फाइव स्टार होटल का खाने का इंतजाम था ।कक्का भी अपनी चिर -परिचित शैली में खाना बनाने वालों को निर्देश देने लगे । रामखिलावन के लड़के को यह नहीं सुहाया । उसने कक्का को झिड़क कर कहा ,” कक्का शाम को खाने के समय आ ज।” कक्का ने रामखिलावन की तरफ़ देखा ’वह भी नजर चुरा कर इधर -उधर देखने लगा ।
कक्का को पहली बार अहसास हुआ कि अब जमाना बदल गया है । उन जैसों की अब कोई पूँछ नहीं रही ।वे निढाल हो कर घर लौट आये ।

1 टिप्पणियाँ:

डॉ महेश सिन्हा ने कहा…

इस तरह बोलना तो होनहार के गुण नहीं है