शब्द-शब्द से छंद बना तू।
श्वास-श्वास आनंद बना तू॥
सूर्य प्रखर बन जल जाएगा,
पगले! शीतल चंद बना तू॥
कृष्ण बाद में पैदा होंगे,
पहले जसुदा-नन्द बना तू॥
खुलना अपनों में, गैरों में
ख़ुद को दुर्गम बंद बना तू॥
'सलिल' ठग रहे हैं अपने ही,
मन को मूरख मंद बना तू॥
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ब्लाग पर कविता, कहानी, गजल आदि को प्रकाशित न करें। जो साथी इसके सदस्य नहीं हैं वे प्रकाशन हेतु कविता, कहानी, गजल आदि रचनाओं को कृपया न भेजें, इन्हें इस ब्लाग पर प्रकाशित कर पाना सम्भव नहीं हो सकेगा।
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गुरुवार, 3 सितंबर 2009
गीतिका: आचार्य संजीव 'सलिल'
प्रस्तुतकर्ता Divya Narmada पर 4:28 am
लेबल:
गजल,
संजीव 'सलिल'
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3 टिप्पणियाँ:
बहुत सुन्दर क्षंद.
अस्प्ष्ट भाव--चन्द कौन बना सकता है,बन सकता है।
--जसुदा-नन्द क्या आदमी बनायेगा?
--अच्छे व्यक्ति खुला होना चाहिये, गै्रों में बन्द व दुर्गम रहेगा तो उन्नति कैसे होगी?
-- मन को मंद क्यों बना? या मूरख-मंद मन क्या होता है?
-------अर्थ-प्रतीति सत्यार्थ व स्पष्ट होनी चाहिये।
आपकी रचनाधर्मिता से बहुत पहले से परिचित हैं। उम्र में आप बड़े हैं इस लिए निवेदन करते भी सहमते हैं पर कुछ सीमाओं के साथ आपसे अनुरोध है कि ब्लाग की प्रकृति के अनुसार ही रचनाओं की प्रस्तुति करने का कष्ट करें।
कविताओं बगैरह के लिए आपका अपना मंच शब्दकार है ही, इस ब्लाग पर आप अपने किसी भी बात, घटना आदि को लेकर हुए अनुभवों को हमसे बाँटें तो ब्लाग की सार्थकता सही मानों में साबित होगी।
आशा है कि आप अन्यथा नहीं लेंगे।
आपका
कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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