आप सबसे इस ब्लाग पर रचनाओं के प्रकाशन के सम्बन्ध में मात्र इतना निवेदन करना है कि रचनायें ब्लाग की प्रकृति के अनुरूप हों तो ब्लाग की सार्थकता साबित होगी।
------------------------------------------------
ब्लाग पर कविता, कहानी, गजल आदि को प्रकाशित न करें।
जो साथी इसके सदस्य नहीं हैं वे प्रकाशन हेतु कविता, कहानी, गजल आदि रचनाओं को कृपया न भेजें, इन्हें इस ब्लाग पर प्रकाशित कर पाना सम्भव नहीं हो सकेगा।

कृपया सहयोग करें

सभी साथियों से अनुरोध है कि अपनी रचनायें ब्लाग की प्रकृति के अनुसार ही पोस्ट करें। ऐसा न हो पाने की स्थिति में प्रकाशित पोस्ट को निकाला भी जा सकता है।

रविवार, 11 सितंबर 2011

आक्रोश के पीछे से छलकता तिरंगे के प्रति सम्मान

अन्ना की आंधी में जिस समय पूरा देश बहा जा रहा था उस समय इस पोस्ट को लगाना बेहतर नहीं समझा था। इस पोस्ट में अन्ना या उनकी टीम के प्रति किसी प्रकार की विरोधी बातें नहीं हैं वरन् उस आन्दोलन जैसे परिदृश्य में एक छोटी सी बालिका के भावों का सम्मिश्रण है।

सम्पूर्ण देश की तरह उरई में भी अन्ना के स्वर से स्वर मिला कर नगरवासी अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे थे। अनशन समाप्ति वाले दिन भी सभी के चेहरे पर एक प्रकार की खुशी, एक अलग तरह का उत्साह देखने को मिल रहा था। क्या बच्चे, क्या जवान और क्या बुजुर्ग सभी अपनी ही धुन में मस्त थे। उरई में लगातार बारह दिनों से चल रहे अनशन, धरने के समाप्त होने के समय गांधी चबूतरे पर सभी उत्साहीजन एकत्र होकर आगे की रणनीति पर विचार करने के साथ-साथ एक दूसरे को बधाइयां दे रहे थे, मुंह मीठा करवा रहे थे।

उत्साह में तिरंगा आसमान को छू रहा था। बच्चे भी अपनी लम्बाई से दो-चार गुने लम्बे झंडे लेकर उत्साह में झूम रहे थे। चार बच्चे ऐसे थे जो पहले दिन से ही बराबर धरनास्थल पर रहते थे और पूरे जोश के साथ अपनी उपस्थिति को दर्ज करवाते थे। उनकी उम्र में सम्भवतः बच्चों को पता ही नहीं होता है कि धरना क्या है, अनशन क्यों किया जाता है, भ्रष्टाचार क्या है, अन्ना और सरकार के बीच का टकराव क्या है पर फिर भी वे चारों बच्चे अपने पूर्ण भोलेपन के साथ हमारे आन्दोलन का हिस्सा बनते।

उनकी मासूमियत का दृश्य इस आन्दोलन के अन्तिम दिन दिखा। खुशी से झूमते लोगों के साथ नाचते-थिरकते बच्चों के साथ उछलती-कूदती बच्ची एकाएक चिल्ला पड़ती है-‘‘हाय दइया.........।’’ हम लोगों ने घबराकर, चौंककर उसकी तरफ देखा। उसकी पूरी बात को सुनकर एकदम से हंसी छूट गई। उस बच्ची ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ झंडा एकदम छोड़कर चिल्लाई-‘‘हाय दइया, जो तो कांग्रेस को झंडा है, जो तिरंगा नईंयां।’’

दरअसल उसके हाथ में जो तिरंगा था उसमें सफेद पट्टी में अशोक चक्र नहीं बना हुआ था और उस मासूम को तो यही पता था कि जिस तिरंगे की सफेद पट्टी में नीला अशोक चक्र बना हो वही तिरंगा ध्वज है। उसको समझाकर उसके हाथों में उस तिरंगे को थमाया और वह बच्ची भी बात को समझकर पुनः उसी जोश में भारत माता की जय, इंकलाब जिन्दाबाद करने में अपने साथियों के साथ लग गई। इधर हम मित्र इस बात पर विचार करने लगे कि यदि बच्चों में राजनैतिक दलों के प्रति इस तरह की भावना है तो अब वाकई देश में राजनैतिक सुधारों की आवश्यकता है; घनघोर आवश्यकता है।

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

बांधवगढ की सैर और शेर के दर्शन....

दो साल पहले ,मई में अचानक ही राजा (डॉ.सुजीत शुक्ल ) का फोन आया, बांधवगढ़ चलना है. मैंने कहा की मई में तो मेरे "ग्रीष्मकालीन भ्रमण कार्यक्रम" तय हैं. रिज़र्वेशन भी हो चुके हैं. राजा बोला " चलो, जून में चलते हैं. लेकिन इसके आगे नहीं. अपने कार्यक्रम १० जून तक समेट लो, भैया से भी बोलो छुट्टियां तैयार रखें. कोई बहाना नहीं. "

अधिकार सहित दिए गए इस आदेश की अवहेलना संभव थी क्या? अपने डेढ़ महीने के कार्यक्रम को एक महीने में समेटा और १० जून को वापस आ गए, सतना. ११ जून को राजा ,और मेरी बुआ सास (राजा की मम्मी) मुंबई से सतना पहुँच गए. अगले दिन हमें बांधवगढ़ के लिए बड़े सबेरे निकलना था.

बांधवगढ़ पहुँचने के लिए विन्ध्य पर्वत श्रृंखला को पार करना होता है. इतने घने और हरे जंगल पूरी पर्वत श्रृंखला पर हैं, कि मन खुश हो जाता है.
बांधवगढ़ पहुँचने के लिए विन्ध्य पर्वत श्रृंखला को पार करना होता है. इतने घने और हरे जंगल पूरी पर्वत श्रृंखला पर हैं, कि मन खुश हो जाता है. हमारी गाडी पहाडियों पर सर्पिल रास्तों से होती हुई आगे बढ़ रही थी. इतना सुन्दर दृश्य!! वर्णनातीत ! इसी पर्वत श्रृंखला में है मोहनिया घटी, जहाँ पहली बार सफ़ेद शेर मिला, इसीलिए उसका नाम मोहन रखा गया.


सुबह १० बजे हम बांधव गढ़ पहुंचे. राजा ने पहले ही सत्येन्द्र जी के रिसोर्ट में बुकिंग करा ली थी. हम सीधे वहीं पहुंचे.
ये रिसोर्ट इतनी खूबसूरत जगह पर है कि यहाँ से बाहरी दुनिया का अहसास ही नहीं होता. लगता है कि हम बीच जंगल में हैं. अलग-अलग बने खूबसूरत कॉटेज घाना बगीचा, आम्रपाली के अनगिनत पेड़, और उन पर लटके बड़े-बड़े असंख्य आम...अनारों से लादे वृक्ष...बहुत सुन्दर स्थान. मन खुश हो गया. देर तक सत्येन्द्र जी और के दोनों ही हमारे साथ गप्पें करते रहे. लंच के बाद सत्येन्द्र जी ही हमें नेशनल पार्क कि पहली साइटिंग पर ले गए. और जंगल के बारे में अमां जानकारियां दिन. अद्भुत ज्ञान है उन्हें जंगल और जंगली जीवों का. पहले दिन तो हम जंगल कि खूबसूरती ही देखते रह गए...हिरन और चीतल जैसे जानवर भी मिले. शेर के पंजों के निशान भी मिले...... इतने घने जंगल............क्या कहें...

दूसरे दिन सुबह चार बजे हम उठ गए और साढे चार बजे जंगल कि तरफ अपनी सफारी में निकल लिए. किस्मत अच्छी थी............दो राउंड के बाद ही शेर के दर्शन हो गए.
हमने तय किया यहां खडे-खडे मौत का इंतज़ार करने से अच्छा है, अपने काटेज़ की तरफ़ जाना. हमारे कौटेज़ डाइनिंग स्पेस से कम से कम सौ कदम दूर......जंगल का मज़ा देने वाले इस रिसोर्ट पर कोफ़्त हो आई
आराम फरमाता शेर......हम बांधवगढ में थे और अलस्सुबह ही हमें शेर के दर्शन हुए थे। उसकी गुर्राहट कानों में अभी भी गूंज रही थी। शाम की साइटिंग के बाद हमने कुछ शौपिन्ग की और रात दस बजे के आस-पास अपने रिसोर्ट पहुंचे। साढे दस बजे वेटर ने डिनर लगा दिये जाने की सूचना दी। हम सब डाइनिंग स्पेस की तरफ बढे। डाइनिंग स्पेस.... पर्यटकों को जंगल का अहसास दिलाने के लिये पूरा रिसोर्ट ही घने जंगल जैसा था , लेकिन ये स्पेस तो केवल आधी-आधी दीवारों से ही घिरा था. खैर... हम डिनर के लिये पहुंचे.अभी हम खाना प्लेटों में निकाल ही रहे थे, कि कुछ गहरी सी, गुर्राहट सी सुनाई दी. सब ने सुनी, मगर किसी ने कुछ नहीं कहा.एक बार...दो बार...तीन बार.... अब बर्दाश्त से बाहर था.... आवाज़ एकदम पास आ गई थी। मेरी बेटी ने पहल की- बोली ये कैसी आवाज़ है? अब सब बोलने लगे- हां हमने भी सुनी... हमने भी.... खाना सर्व कर रहे वेटर ने बेतकल्लुफ़ी से कहा-अरे ये तो बिल्ली की आवाज़ है. अयं...ऐसी आवाज़ में बिल्ली कब से बोलने लगी!!!
नहीं.....ये बिल्ली नहीं है.....गुर्राहट और तेज़ हो गई.... अब दीवार के उस पार शेर और इस पार हम....जंगल से लगा हुआ रिसोर्ट...हदबंदी के लिये बाड तक नहीं.....हम सब तो थे ही, मेरी भांजी भी साथ में....हे ईश्वर!!! दौड के दोनों बच्चों को किचन में बंद किया. अब सारे वेटर भी डरे हुए....बोले- हां शेर आ तो जाता है यहां...... पिछले दिनों एक लडके को खा गया था.... काटो तो खून नहीं.......टेबल पर जस का तस पडा खाना..... हमने तय किया यहां खडे-खडे मौत का इंतज़ार करने से अच्छा है, अपने काटेज़ की तरफ़ जाना. हमारे कौटेज़ डाइनिंग स्पेस से कम से कम सौ कदम दूर......जंगल का मज़ा देने वाले इस रिसोर्ट पर कोफ़्त हो आई. कल तक जिसकी तारीफ़ करते नहीं थक रहे थे, आज वही मौत का घर दिखाई दे रहा था. खैर....धीरे-धीरे उतरे.... एक-दूसरे का हाथ पकडे किसी प्रकार कौटेज़ तक पहुंचे. आह.... सुकून की लम्बी सांस...... पूरी रात आंखों में कटी. सबेरे जब हम फिर साइटिंग के लिये पहंचे- लोगों को कहते सुना- रात बोखा( मेल टाइगर का नाम) शहर की तरफ़ आया था!!!!!!!!!!

रविवार, 3 अप्रैल 2011

बजा क्रिकेट में भारत का डंका ।

हार गयी वर्ल्ड कप में लंका ,
बजा क्रिकेट में भारत का डंका
मैच फायनल, था क्या हाल ?
अंतिम क्षण तक मन बेहाल
सबका रहा धड़कता दिल ,
जबतक जीत गयी नहीं मिल
सबने अच्छी क्रिकेट खेली ,
सबकी अपनी-अपनी शैली
पलड़ा कभी, किसी का झुकता,
हर दर्शक का ह्रदय उछलता
जब हुए सहवाग,सचिन आउट ,
लगा जीत में अब है डाउट
गौतम निकले अति गंभीर,
भारत की अच्छी तक़दीर
था विराट का सुखद प्रयास ,
जिससे बधीं जीत की आस
फिर धोनी की सुन्दर पारी ,
जिससे बिखरीं खुशिया सारी
किया बालरों ने भी कमाल ,
फील्डिंग से रहे विरोधी बेहाल
वर्ष अठाईस का इंतजार ,
ख़त्म किया कैप्टन ने छक्का मार
सर्वश्रेष्ठ अपना युवराज ,
हर भारतवासी को नाज
हुईं ख़ुशी से आँखें नम ,
आखिर जीते वर्ल्ड कप हम
रूप कोई भी हो क्रिकेट का ,
भारत अब है नंबर वन

सोमवार, 21 मार्च 2011

भांग की मस्ती और रेलवे स्टेशन का हुडदंग

भांग की मस्ती और रेलवे स्टेशन का हुडदंग
डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
=================

होली आये और होली में किये हुए हुड़दंग भी याद न आयें तो समझो कि होली मनाई ही नहीं। हम लोग संयुक्त परिवार में रहते आये हैं और अपने बचपन से ही सभी पारिवारिकजनों के साथ ही होली का मजा लूटते रहे हैं। होली जलने की रात से शुरू हुआ धमाल कई-कई दिनों तक चलता रहता था। बचपन में अपने बड़ों की मदद से होली का हुड़दंग किया जाता था लेकिन स्वतन्त्र रूप से होली का हुड़दंग मचा जब हम अपनी उच्च शिक्षा के लिए ग्वालियर गये।

हॉस्टल का माहौल एकदम पारिवारिकता से भरपूर था। हम सभी छात्रों के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं था। पहला ही साल था और हम सभी मिलकर दीपावली, दशहरा आदि अपने-अपने घरों में मनाने के पहले हॉस्टल में एकसाथ मना लिया करते थे। इसी विचार के साथ कि होली भी घर जाने के पहले हॉस्टल में मना ली जायेगी सभी कुछ न कुछ प्लानिंग करने में लगे थे।

हम कुछ लोगों का एक ग्रुप इस तरह का था जो हॉस्टल की व्यवस्था में कुछ ज्यादा ही सक्रिय रहा करता था। इसी कारण से उन दिनों हॉस्टल की कैंटीन की जिम्मेवारी हम सदस्यों पर ही थी। होली की छुट्टियां होने के ठीक दो-तीन दिन पहले रविवार था। रविवार इस कारण से हम हॉस्टल वालों के लिए विशेष हुआ करता था कि उस दिन एक समय-दोपहर का- भोजन बना करता था, खाना बनाने वाले को रात के खाने का अवकाश दिया जाता था। रविवार को पूड़ी, सब्जी, खीर, रायता आदि बना करता था। हम सदस्यों ने सोचा कि कुछ अलग तरह से इस दिन का मजा लिया जाये।

हमारी इस सोच में और तड़का इससे और लग गया जब पता चला कि हॉस्टल के बहुत से छात्र उसी रविवार को अपने-अपने घर जा रहे हैं। रविवार के भोजन को खास बनाने की योजना हम दोस्तों तक रही और अन्य सभी छात्रों के साथ आम सहमति बनी कि होली इसी रविवार को खेली जायेगी, उसके बाद ही जिसको घर जाना है वो जायेगा।

हम दोस्तों ने अपनी योजना के मुताबिक उस दिन खाने में खीर में खूब सारी भांग मिलवा दी। इस बात की चर्चा किसी से भी नहीं की। सभी ने मिलकर खाना खाया और हम दोस्तों ने सभी को खूब छक कर खीर खिलवाई। मीठे के साथ भांग का नशा और उस पर होली की हुड़दंग का सुरूर....हॉस्टल के सभी छात्रों पर तो जैसे मस्ती खुद आकर विराज गई हो। खूब दम से होली खेली जाने लगी, टेप चलाकर गानों के साथ नाच भी शुरू हुआ। किसी के बीच सीनियर-जूनियर जैसी बात नहीं दिख रही थी।

इसी बीच कुछ छात्र जो होली नहीं खेलना चाहते थे और उन्हें घर भी जाना था, सो उन्होंने खीर भी इतनी नहीं खाई थी कि नशा उनको अपने वश में करता। ऐसे लगभग पांच-छह छात्रों ने हॉस्टल की दीवार फांदकर रेलवे स्टेशन की ओर भागना शुरू किया। उनके दीवार फांदने का कारण ये था कि हम सभी रंगों से भरी बाल्टी आदि लेकर दरवाजे पर ही बैठे थे कि कोई भी बिना रंगे घर न जा पाये। इस बीच उनका भागना हुआ और हम लोगों को भनक लग गई कि कुछ लोग जो हमारी इस होली में साथ नहीं हैं वे पीछे से भाग गये। बस फिर क्या था, होली का हुड़दंग सिर पर चढ़ा हुआ था, भांग का नशा अपनी मस्ती दिखा ही रहा था, हम सभी जो जिस तरह से बैठा था वैसे ही रेलवे स्टेशन की तरफ दौड़ पड़ा।

कोई नंगे पैर तो कोई एक पैर में चप्पल-एक पैर में जूता बिधाये; कोई शर्ट तो पहने है पर पैंट गायब तो कोई नंगे बदन दौड़े ही जा रहा था। और तो और क्योंकि उन्हें रंगना भी था जो बिना रंगे निकल पड़े थे तो हाथों में रंगों से भरी बाल्टी भी लिये सड़क पर दौड़ चल रही थी। आप सोचिए कि बिना होली आये, होली जैसी मस्ती को धारण किये एकसाथ लगभग 20-25 लड़के बिना किसी की परवाह किये बस सड़क पर दौड़े चले जा रहे थे। लगभग चार-पांच किमी की दौड़ लगाने के बाद स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर हुरियारों की टोली पहुंच ही गई, वे भी बरामद हो गये जिनको रंगना था। बस फिर क्या था चालू हो गई होली रेलवे स्टेशन पर ही।

मस्ती का मूड, भांग का सुरूर, अपने साथियों को रंगने के बाद अपनी तरह के ही कुछ मस्ती के दीवाने यात्रियों को रंगना शुरू किया। कुछ देर का हुल्लड़ देखने के बाद प्लेटफॉर्म पर बनी चौकी के सिपाहियों ने आकर दिखाये दो-दो हाथ तो रंगीन हाथ उनके साथ भी हो गये पर बाद में डर के मारे सभी वापस हॉस्टल लौट पड़े। हद तो तब हो गई जबकि भांग का नशा तो दूसरे दिन दोपहर तक उतर गया किन्तु सिर का भारीपन दो दिनों तक रहा। इसी भारीपन में नीबू चूस-चूस कर अपनी प्रयोगात्मक परीक्षा दी, जो सोमवार को सुबह सम्पन्न हुई। चूंकि हमारी रेल्वे स्टेशन की होली की खबर हमारे हॉस्टल वार्डन के पास तक आ चुकी थी तो सभी प्रोफेसर्स को पता था कि हम लोग किस मस्ती के साथ प्रयोगात्मक परीक्षा दे रहे हैं। यह तो भला हो उन सभी गुरुजनों का जिन्होंने पूरे सहयोग के साथ हमारी होली के आनन्द और प्रयोगात्मक परीक्षा के बीच संतुलन बिठा दिया।

आज भी कभी-कभी होली में भांग का स्वाद लेने का प्रयास किया जाता है तो हॉस्टल की होली और रेलवे स्टेशन का हुड़दंग याद आये बिना नहीं रहता है।

रविवार, 2 जनवरी 2011

ओ री चवन्नी तू याद बहुत आएगी!!!

अभी हाल में एक समाचार पढ़ा कि अब पच्चीस पैसे (चवन्नी) का सिक्का चलन में नहीं रहेगा। सरकार की ओर से स्टील की मंहगाई और अन्य दूसरे कारणों के कारण पच्चीस पैसे को बनाना बन्द करके इसका चलन भी बन्द कर दिया गया है। वैसे देखा जाये तो सरकारी आदेश के पहले भी पच्चीस पैसे का चलन जनता ने स्वयं ही बन्द कर दिया था। लोगों का कहना था कि अब पच्चीस पैसे (चवन्नी) का सिक्का भिखारी भी नहीं लेता है। भले ही कुछ लोगों ने इसको सिर्फ सुना हो पर हमने तो वास्तविकता में इसे देखा और सहा है।

चित्र गूगल छवियों से साभार
यह बात किसी और दिन, अभी तो वह बात जो इस सिक्के के बन्द हो जाने पर याद आ गई।

बात उन दिनों की है जब हम कक्षा सात-आठ में पढ़ा करते थे। राजकीय इंटर कालेज, उरई के छात्र थे और हमको स्कूल जाने पर नित्य जेबखर्च के रूप में पच्चीस पैसे ही मिला करते थे। हो सकता है कि आज के बच्चों को यह बहुत ही आश्चर्य भरा लगे कि रोज का जेबखर्च मात्र चवन्नी पर उस समय यह किसी करोड़पति के खजाने से कम नहीं होता था हमारे लिए।

ये बातें सन् 85-86 की हैं। उस समय इस एक छोटे से सिक्के के साथ एक छोटी सी पार्टी भी हो जाया करती थी। हम दो-तीन दोस्त एकसाथ हमेशा रहा करते थे और मिलमिला कर सभी के सिक्के एक ग्रांड पार्टी का आधार तैयार कर दिया करते थे।

विशेष बात तो यह होती थी घर से स्कूल जाते समय अम्मा ही चवन्नी दिया करती थीं। कभी-कभार ऐसा होता था कि थोड़ी बहुत देर होने के कारण अथवा किसी और भी वजह से हमें छोड़ने के लिए पिताजी साइकिल से जाया करते थे। उनकी हमेशा से एक आदत रही थी कि स्कूल के गेट पर हमें साइकिल से उतारने के बाद हमसे पूछा करते थे कि पैसे मिले? झूठ बोलने की हिम्मत तो जुटा ही नहीं पाते तो या तो चुप रह जाते या फिर कह देते कि हां हैं। इसके बाद पिताजी अपनी जेब से पच्चीस पैसे का उपहार हमें दे ही देते।

चूंकि पिताजी कभी-कभी ही छोड़ने आते थे और जिस दिन उनका आना होता उस दिन हमारा जेबखर्च पच्चीस से बढ़कर पचास हो जाया करता था। समझिए कि उस दिन तो बस चांदी ही चांदी होती थी। क्या कुछ ले लिया जाये और क्या कुछ छोड़ा जाये, समझ में ही नहीं आता था। उस समय स्कूल परिसर में कोई भी ऐसी सामग्री बेचने भी नहीं दी जाती थी जो हानिकारक हो, इस कारण से घरवाले भी निश्चिन्त रहते थे।

पच्चीस पैसे की नवाबी उस समय और तेजी से बढ़ गई जब हमारे साथ पढ़ने के लिए हमारा छोटा भाई भी साथ जाने लगा। अब हम दो जनों के बीच पचास पैसे की जमींदारी हो गई जो हमारी मित्र मंडली में किसी के पास नहीं होती थी। हम दो भाइयों के बीच एकसाथ रूप से आये पचास पैसे के मालिकाना हक से हम अपनी मित्र मंडली पर रोब भी जमा लेते थे पर भोजनावकाश में सारी हेकड़ी आपस में खान-पान को लेकर छूमंतर हो जाती थी। सबके सब अपने अपने छोटे से करोडपतित्व को आपस में मिला कर हर सामग्री का मजा उठा लेते थे।

आज जब समाचार देखा तो बरबस ही उस चवन्नी की याद तो आई ही साथ में उन दस पैसे के पांच पैसे के सिक्कों की भी याद आ गई जो न जाने कब असमय ही चलन से बाहर हो गये। आह री चवन्नी! तुम्हारी याद तो हमेशा मन में रहेगी जिसने उस छोटी सी उम्र में ही नवाबी का एहसास करा दिया था, धन की अहमियत को समझा दिया था।

चित्र गूगल छवियों से साभार

आज चवन्नी के साथ यह भी याद आ गए।