अभी हाल में एक समाचार पढ़ा कि अब पच्चीस पैसे (चवन्नी) का सिक्का चलन में नहीं रहेगा। सरकार की ओर से स्टील की मंहगाई और अन्य दूसरे कारणों के कारण पच्चीस पैसे को बनाना बन्द करके इसका चलन भी बन्द कर दिया गया है। वैसे देखा जाये तो सरकारी आदेश के पहले भी पच्चीस पैसे का चलन जनता ने स्वयं ही बन्द कर दिया था। लोगों का कहना था कि अब पच्चीस पैसे (चवन्नी) का सिक्का भिखारी भी नहीं लेता है। भले ही कुछ लोगों ने इसको सिर्फ सुना हो पर हमने तो वास्तविकता में इसे देखा और सहा है।
यह बात किसी और दिन, अभी तो वह बात जो इस सिक्के के बन्द हो जाने पर याद आ गई।
बात उन दिनों की है जब हम कक्षा सात-आठ में पढ़ा करते थे। राजकीय इंटर कालेज, उरई के छात्र थे और हमको स्कूल जाने पर नित्य जेबखर्च के रूप में पच्चीस पैसे ही मिला करते थे। हो सकता है कि आज के बच्चों को यह बहुत ही आश्चर्य भरा लगे कि रोज का जेबखर्च मात्र चवन्नी पर उस समय यह किसी करोड़पति के खजाने से कम नहीं होता था हमारे लिए।
ये बातें सन् 85-86 की हैं। उस समय इस एक छोटे से सिक्के के साथ एक छोटी सी पार्टी भी हो जाया करती थी। हम दो-तीन दोस्त एकसाथ हमेशा रहा करते थे और मिलमिला कर सभी के सिक्के एक ग्रांड पार्टी का आधार तैयार कर दिया करते थे।
विशेष बात तो यह होती थी घर से स्कूल जाते समय अम्मा ही चवन्नी दिया करती थीं। कभी-कभार ऐसा होता था कि थोड़ी बहुत देर होने के कारण अथवा किसी और भी वजह से हमें छोड़ने के लिए पिताजी साइकिल से जाया करते थे। उनकी हमेशा से एक आदत रही थी कि स्कूल के गेट पर हमें साइकिल से उतारने के बाद हमसे पूछा करते थे कि पैसे मिले? झूठ बोलने की हिम्मत तो जुटा ही नहीं पाते तो या तो चुप रह जाते या फिर कह देते कि हां हैं। इसके बाद पिताजी अपनी जेब से पच्चीस पैसे का उपहार हमें दे ही देते।
चूंकि पिताजी कभी-कभी ही छोड़ने आते थे और जिस दिन उनका आना होता उस दिन हमारा जेबखर्च पच्चीस से बढ़कर पचास हो जाया करता था। समझिए कि उस दिन तो बस चांदी ही चांदी होती थी। क्या कुछ ले लिया जाये और क्या कुछ छोड़ा जाये, समझ में ही नहीं आता था। उस समय स्कूल परिसर में कोई भी ऐसी सामग्री बेचने भी नहीं दी जाती थी जो हानिकारक हो, इस कारण से घरवाले भी निश्चिन्त रहते थे।
पच्चीस पैसे की नवाबी उस समय और तेजी से बढ़ गई जब हमारे साथ पढ़ने के लिए हमारा छोटा भाई भी साथ जाने लगा। अब हम दो जनों के बीच पचास पैसे की जमींदारी हो गई जो हमारी मित्र मंडली में किसी के पास नहीं होती थी। हम दो भाइयों के बीच एकसाथ रूप से आये पचास पैसे के मालिकाना हक से हम अपनी मित्र मंडली पर रोब भी जमा लेते थे पर भोजनावकाश में सारी हेकड़ी आपस में खान-पान को लेकर छूमंतर हो जाती थी। सबके सब अपने अपने छोटे से करोडपतित्व को आपस में मिला कर हर सामग्री का मजा उठा लेते थे।
आज जब समाचार देखा तो बरबस ही उस चवन्नी की याद तो आई ही साथ में उन दस पैसे के पांच पैसे के सिक्कों की भी याद आ गई जो न जाने कब असमय ही चलन से बाहर हो गये। आह री चवन्नी! तुम्हारी याद तो हमेशा मन में रहेगी जिसने उस छोटी सी उम्र में ही नवाबी का एहसास करा दिया था, धन की अहमियत को समझा दिया था।
यह बात किसी और दिन, अभी तो वह बात जो इस सिक्के के बन्द हो जाने पर याद आ गई।
बात उन दिनों की है जब हम कक्षा सात-आठ में पढ़ा करते थे। राजकीय इंटर कालेज, उरई के छात्र थे और हमको स्कूल जाने पर नित्य जेबखर्च के रूप में पच्चीस पैसे ही मिला करते थे। हो सकता है कि आज के बच्चों को यह बहुत ही आश्चर्य भरा लगे कि रोज का जेबखर्च मात्र चवन्नी पर उस समय यह किसी करोड़पति के खजाने से कम नहीं होता था हमारे लिए।
ये बातें सन् 85-86 की हैं। उस समय इस एक छोटे से सिक्के के साथ एक छोटी सी पार्टी भी हो जाया करती थी। हम दो-तीन दोस्त एकसाथ हमेशा रहा करते थे और मिलमिला कर सभी के सिक्के एक ग्रांड पार्टी का आधार तैयार कर दिया करते थे।
विशेष बात तो यह होती थी घर से स्कूल जाते समय अम्मा ही चवन्नी दिया करती थीं। कभी-कभार ऐसा होता था कि थोड़ी बहुत देर होने के कारण अथवा किसी और भी वजह से हमें छोड़ने के लिए पिताजी साइकिल से जाया करते थे। उनकी हमेशा से एक आदत रही थी कि स्कूल के गेट पर हमें साइकिल से उतारने के बाद हमसे पूछा करते थे कि पैसे मिले? झूठ बोलने की हिम्मत तो जुटा ही नहीं पाते तो या तो चुप रह जाते या फिर कह देते कि हां हैं। इसके बाद पिताजी अपनी जेब से पच्चीस पैसे का उपहार हमें दे ही देते।
चूंकि पिताजी कभी-कभी ही छोड़ने आते थे और जिस दिन उनका आना होता उस दिन हमारा जेबखर्च पच्चीस से बढ़कर पचास हो जाया करता था। समझिए कि उस दिन तो बस चांदी ही चांदी होती थी। क्या कुछ ले लिया जाये और क्या कुछ छोड़ा जाये, समझ में ही नहीं आता था। उस समय स्कूल परिसर में कोई भी ऐसी सामग्री बेचने भी नहीं दी जाती थी जो हानिकारक हो, इस कारण से घरवाले भी निश्चिन्त रहते थे।
पच्चीस पैसे की नवाबी उस समय और तेजी से बढ़ गई जब हमारे साथ पढ़ने के लिए हमारा छोटा भाई भी साथ जाने लगा। अब हम दो जनों के बीच पचास पैसे की जमींदारी हो गई जो हमारी मित्र मंडली में किसी के पास नहीं होती थी। हम दो भाइयों के बीच एकसाथ रूप से आये पचास पैसे के मालिकाना हक से हम अपनी मित्र मंडली पर रोब भी जमा लेते थे पर भोजनावकाश में सारी हेकड़ी आपस में खान-पान को लेकर छूमंतर हो जाती थी। सबके सब अपने अपने छोटे से करोडपतित्व को आपस में मिला कर हर सामग्री का मजा उठा लेते थे।
आज जब समाचार देखा तो बरबस ही उस चवन्नी की याद तो आई ही साथ में उन दस पैसे के पांच पैसे के सिक्कों की भी याद आ गई जो न जाने कब असमय ही चलन से बाहर हो गये। आह री चवन्नी! तुम्हारी याद तो हमेशा मन में रहेगी जिसने उस छोटी सी उम्र में ही नवाबी का एहसास करा दिया था, धन की अहमियत को समझा दिया था।