रात गहरा चुकी थी और हम मित्रों द्वारा बातों के बताशे बनाने भी बन्द किये जा चुके थे, सो मन सोने को कर रहा था। सभी ने विदा ली और अपने-अपने कमरों की ओर चल दिये। ठण्ड के दिन होने के कारण रजाई में घुसते ही नींद ने अपना असर दिखाना शुरू किया।
लेटते ही नींद का आना तो होना नहीं था, दोस्त-यारों के साथ हुई बातों को सोच-सोच मन ही मन हँसते-मुस्कराते सोने का उपक्रम करने लगे। सोचते-विचारते, हँसते-मुस्कराते कब नींद लग गई पता ही नहीं चला।
एकाएक खर्र-खर्र की आवाज ने चौंक कर उठा दिया। हाथ मार कर मेज पर रखे टेबिल लैम्प को रोशन किया। आवाज बन्द। इधर-उधर, कमरे में निगाह मारी कि कहीं बिल्ली या फिर कोई चूहा आदि न घुस आया हो पर कहीं कुछ नहीं।
सपना समझ कर सिर को झटका और टेबिल लैम्प की लाइट को बुझा कर रजाई में फिर से घुस गये। खर्र-खर्र की आवाज आनी फिर शुरू। जैसे ही हाथ बढ़ा कर लाइट जलाई आवाज आनी बन्द।
एक-दो मिनट लाइट को जलने दिया पर आवाज नहीं हुई। अबकी पलंग पर बैठे ही रहे और लाइट बन्द कर दी। जैसे ही रोशनी गई आवाज आनी शुरू हुई। वहीं डरावनी सी खर्र-खर्र। बिना टेबिल लैम्प को जलाये आवाज को सुनने का प्रयास किया कि आ कहाँ से रही है? अगले ही पल समझ में आ गया कि आवाज खिड़की की तरफ से आ रही है।
टेबिल लैम्प जलाया तो आवाज आनी बन्द हो गई। लगा कि दोस्त लोग हैं जो डराना चाह रहे हैं क्योंकि आज हमारा रूम-पार्टनर भी नहीं था।
होता भी था कि हास्टल में किसी न किसी रूप में भूत-प्रेत-चुड़ैल आदि के किस्से सुनाये जाते थे। किसी कमरे को भुतहा बनाया जाता, किसी पेड़ पर भूत का निवास बताया जाता। यह सब लगभग रोज का नियम होता था। आज भी महफिल जमी थी बातों-बातों में डरावने किस्से भी तैर चुके थे।
एक-दो आवाजें दीं पर कोई आहट भी नहीं मिली। लाइट जलता छोड़कर रजाई ओढ़ कर लेटे पर आवाज नहीं आई। लाइट बन्द की और आवाज आनी शुरू। हम चुपचाप बिना आहट के यह समझने और देखने की कोशिश करने लग कि कहीं खिड़की पर कोई है तो नहीं? लगभग चार-पाँच मिनट की कोशिश के बाद भी कोई समझ न आया और कोई आहट भी नहीं समझ आई, हाँ, खर्र-खर्र की आवाज लगातार होती रही।
अब थोड़ा सा डर लगा। एक तो अकेले होने का डर और ऊपर से हास्टल के चर्चित भूतों का डर। हालांकि हमें कभी भी भूत-प्रेत जैसी बातों से डर नहीं लगा किन्तु माहौल का नया-नया होना और फिर रोज-रोज के वहीं किस्सों ने आज मन में डर पैदा कर दिया।
बहुत हिम्मत करके लाइट जलाई और एकदम से कूद कर खिड़की पर आ गये। यह सोचा कि यदि भूतों के हाथों मरना लिखा होगा तो यही सही और यदि दोस्त लोग हैं तो उनको सीधे-सीधे पकड़ा जा सकता है।
खिड़की से जो देखा उसने डर तो दूर कर दिया पर चौकीदार के ऊपर गुस्सा ला दिया। चिल्ला कर चौकीदार को बुलाया। खर्र-खर्र की आवाज को पैदा करने वाला कोई भूत नहीं और न ही हमारे कोई मित्र वगैरह थे। एक आवारा गाय हमारे कमरे के ठीक नीचे खड़े होकर वहाँ लगे पेड़ के तने से अपना सींग रगड़ती थी तो खर्र-खर्र की डरावनी सी आवाज होने लगती थी। जैसे ही लाइट जलती वह सींग रगड़ना रोक देती और जैसे ही लाइट बन्द होती.............।
चौकीदार बाबा ने आकर उस गाय को वहाँ से दूर भगाया और हम भी अपने मन में एक पल को बिठा चुके भूत को भगा कर फिर से रजाई में दुबक गये।
लेटते ही नींद का आना तो होना नहीं था, दोस्त-यारों के साथ हुई बातों को सोच-सोच मन ही मन हँसते-मुस्कराते सोने का उपक्रम करने लगे। सोचते-विचारते, हँसते-मुस्कराते कब नींद लग गई पता ही नहीं चला।
एकाएक खर्र-खर्र की आवाज ने चौंक कर उठा दिया। हाथ मार कर मेज पर रखे टेबिल लैम्प को रोशन किया। आवाज बन्द। इधर-उधर, कमरे में निगाह मारी कि कहीं बिल्ली या फिर कोई चूहा आदि न घुस आया हो पर कहीं कुछ नहीं।
सपना समझ कर सिर को झटका और टेबिल लैम्प की लाइट को बुझा कर रजाई में फिर से घुस गये। खर्र-खर्र की आवाज आनी फिर शुरू। जैसे ही हाथ बढ़ा कर लाइट जलाई आवाज आनी बन्द।
एक-दो मिनट लाइट को जलने दिया पर आवाज नहीं हुई। अबकी पलंग पर बैठे ही रहे और लाइट बन्द कर दी। जैसे ही रोशनी गई आवाज आनी शुरू हुई। वहीं डरावनी सी खर्र-खर्र। बिना टेबिल लैम्प को जलाये आवाज को सुनने का प्रयास किया कि आ कहाँ से रही है? अगले ही पल समझ में आ गया कि आवाज खिड़की की तरफ से आ रही है।
टेबिल लैम्प जलाया तो आवाज आनी बन्द हो गई। लगा कि दोस्त लोग हैं जो डराना चाह रहे हैं क्योंकि आज हमारा रूम-पार्टनर भी नहीं था।
होता भी था कि हास्टल में किसी न किसी रूप में भूत-प्रेत-चुड़ैल आदि के किस्से सुनाये जाते थे। किसी कमरे को भुतहा बनाया जाता, किसी पेड़ पर भूत का निवास बताया जाता। यह सब लगभग रोज का नियम होता था। आज भी महफिल जमी थी बातों-बातों में डरावने किस्से भी तैर चुके थे।
एक-दो आवाजें दीं पर कोई आहट भी नहीं मिली। लाइट जलता छोड़कर रजाई ओढ़ कर लेटे पर आवाज नहीं आई। लाइट बन्द की और आवाज आनी शुरू। हम चुपचाप बिना आहट के यह समझने और देखने की कोशिश करने लग कि कहीं खिड़की पर कोई है तो नहीं? लगभग चार-पाँच मिनट की कोशिश के बाद भी कोई समझ न आया और कोई आहट भी नहीं समझ आई, हाँ, खर्र-खर्र की आवाज लगातार होती रही।
अब थोड़ा सा डर लगा। एक तो अकेले होने का डर और ऊपर से हास्टल के चर्चित भूतों का डर। हालांकि हमें कभी भी भूत-प्रेत जैसी बातों से डर नहीं लगा किन्तु माहौल का नया-नया होना और फिर रोज-रोज के वहीं किस्सों ने आज मन में डर पैदा कर दिया।
बहुत हिम्मत करके लाइट जलाई और एकदम से कूद कर खिड़की पर आ गये। यह सोचा कि यदि भूतों के हाथों मरना लिखा होगा तो यही सही और यदि दोस्त लोग हैं तो उनको सीधे-सीधे पकड़ा जा सकता है।
खिड़की से जो देखा उसने डर तो दूर कर दिया पर चौकीदार के ऊपर गुस्सा ला दिया। चिल्ला कर चौकीदार को बुलाया। खर्र-खर्र की आवाज को पैदा करने वाला कोई भूत नहीं और न ही हमारे कोई मित्र वगैरह थे। एक आवारा गाय हमारे कमरे के ठीक नीचे खड़े होकर वहाँ लगे पेड़ के तने से अपना सींग रगड़ती थी तो खर्र-खर्र की डरावनी सी आवाज होने लगती थी। जैसे ही लाइट जलती वह सींग रगड़ना रोक देती और जैसे ही लाइट बन्द होती.............।
चौकीदार बाबा ने आकर उस गाय को वहाँ से दूर भगाया और हम भी अपने मन में एक पल को बिठा चुके भूत को भगा कर फिर से रजाई में दुबक गये।
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चित्र साभार गूगल छवियों से