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सोमवार, 28 दिसंबर 2009

भूत होने की आशंका ने डरा दिया

रात गहरा चुकी थी और हम मित्रों द्वारा बातों के बताशे बनाने भी बन्द किये जा चुके थे, सो मन सोने को कर रहा था। सभी ने विदा ली और अपने-अपने कमरों की ओर चल दिये। ठण्ड के दिन होने के कारण रजाई में घुसते ही नींद ने अपना असर दिखाना शुरू किया।

लेटते ही नींद का आना तो होना नहीं था, दोस्त-यारों के साथ हुई बातों को सोच-सोच मन ही मन हँसते-मुस्कराते सोने का उपक्रम करने लगे। सोचते-विचारते, हँसते-मुस्कराते कब नींद लग गई पता ही नहीं चला।

एकाएक खर्र-खर्र की आवाज ने चौंक कर उठा दिया। हाथ मार कर मेज पर रखे टेबिल लैम्प को रोशन किया। आवाज बन्द। इधर-उधर, कमरे में निगाह मारी कि कहीं बिल्ली या फिर कोई चूहा आदि न घुस आया हो पर कहीं कुछ नहीं।

सपना समझ कर सिर को झटका और टेबिल लैम्प की लाइट को बुझा कर रजाई में फिर से घुस गये। खर्र-खर्र की आवाज आनी फिर शुरू। जैसे ही हाथ बढ़ा कर लाइट जलाई आवाज आनी बन्द।

एक-दो मिनट लाइट को जलने दिया पर आवाज नहीं हुई। अबकी पलंग पर बैठे ही रहे और लाइट बन्द कर दी। जैसे ही रोशनी गई आवाज आनी शुरू हुई। वहीं डरावनी सी खर्र-खर्र। बिना टेबिल लैम्प को जलाये आवाज को सुनने का प्रयास किया कि आ कहाँ से रही है? अगले ही पल समझ में आ गया कि आवाज खिड़की की तरफ से आ रही है।

टेबिल लैम्प जलाया तो आवाज आनी बन्द हो गई। लगा कि दोस्त लोग हैं जो डराना चाह रहे हैं क्योंकि आज हमारा रूम-पार्टनर भी नहीं था।
होता भी था कि हास्टल में किसी न किसी रूप में भूत-प्रेत-चुड़ैल आदि के किस्से सुनाये जाते थे। किसी कमरे को भुतहा बनाया जाता, किसी पेड़ पर भूत का निवास बताया जाता। यह सब लगभग रोज का नियम होता था। आज भी महफिल जमी थी बातों-बातों में डरावने किस्से भी तैर चुके थे।

एक-दो आवाजें दीं पर कोई आहट भी नहीं मिली। लाइट जलता छोड़कर रजाई ओढ़ कर लेटे पर आवाज नहीं आई। लाइट बन्द की और आवाज आनी शुरू। हम चुपचाप बिना आहट के यह समझने और देखने की कोशिश करने लग कि कहीं खिड़की पर कोई है तो नहीं? लगभग चार-पाँच मिनट की कोशिश के बाद भी कोई समझ न आया और कोई आहट भी नहीं समझ आई, हाँ, खर्र-खर्र की आवाज लगातार होती रही।

अब थोड़ा सा डर लगा। एक तो अकेले होने का डर और ऊपर से हास्टल के चर्चित भूतों का डर। हालांकि हमें कभी भी भूत-प्रेत जैसी बातों से डर नहीं लगा किन्तु माहौल का नया-नया होना और फिर रोज-रोज के वहीं किस्सों ने आज मन में डर पैदा कर दिया।



बहुत हिम्मत करके लाइट जलाई और एकदम से कूद कर खिड़की पर आ गये। यह सोचा कि यदि भूतों के हाथों मरना लिखा होगा तो यही सही और यदि दोस्त लोग हैं तो उनको सीधे-सीधे पकड़ा जा सकता है।

खिड़की से जो देखा उसने डर तो दूर कर दिया पर चौकीदार के ऊपर गुस्सा ला दिया। चिल्ला कर चौकीदार को बुलाया। खर्र-खर्र की आवाज को पैदा करने वाला कोई भूत नहीं और न ही हमारे कोई मित्र वगैरह थे। एक आवारा गाय हमारे कमरे के ठीक नीचे खड़े होकर वहाँ लगे पेड़ के तने से अपना सींग रगड़ती थी तो खर्र-खर्र की डरावनी सी आवाज होने लगती थी। जैसे ही लाइट जलती वह सींग रगड़ना रोक देती और जैसे ही लाइट बन्द होती.............।

चौकीदार बाबा ने आकर उस गाय को वहाँ से दूर भगाया और हम भी अपने मन में एक पल को बिठा चुके भूत को भगा कर फिर से रजाई में दुबक गये।

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चित्र साभार गूगल छवियों से

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

धांय-धांय-धांय.....एक के बाद एक तीन फायर


इसे जातिगत असर कहा जाये या फिर आसपास का वातावरण कि बचपन से ही हमें हथिययारों ने बहुत ही लुभाया है। गाँव में भी पुरानी जमींदारी होने के कारण नक्काशीदार तलवारें और अन्य अस्त्र-शस्त्र देखने को मिलते रहते थे। इसके अलावा घर में रिवाल्वर, बन्दूक होने के कारण भी इनके प्रति एक प्रकार की रुचि बनी हुई थी।
कभी-कभी बन्दूक और रिवाल्वर चलाने का मन भी होता था। घर में विशेष रूप से दशहरे के पूजन के बाद रिवाल्वर और बन्दूक चलाने का काम पिताजी या चाचाजी के द्वारा होता था। छत पर जब भी दशहरे और दीपावली पर पूजन के बाद बन्दूक, रिवाल्वर चलाने का उपक्रम होता तो हम बस ललचा कर ही रह जाते।
इन पर्वों के अलावा कभी खुशी के अवसर पर भी धमाके कर लिए जाते थे पर इनको करने की जिम्मेवारी सिर्फ और सिर्फ पिताजी की होती, हाँ, यदि घर में उस समय चाचा वगैरह हुए तो वे भी इसमें हिस्सा ले लेते थे।




बात होगी कोई 1990 की जब हम स्नातक के प्रथम वर्ष में थे। ग्वालियर से छुट्टियों में घर आना हुआ। उसी समय हमारे एक पारिवारिक मित्र के घर नवजात शिशु का आगमन हुआ। अवसर हम सभी के लिए खुशी का था। सभी लोग उन्हीं के घर पर उपस्थित थे।
जैसा कि होना था, बन्दूक तो चलनी ही थी। हम चिरपरिचित अंदाज में शांत बैठे थे क्योंकि हमें मालूम था कि पिताजी की दृष्टि में हम अभी इतने बड़े नहीं हुए कि बन्दूक चलाने को मिले। मन तो बहुत कर रहा था किन्तु कहते कैसे? चुपचाप बैठे थे कि तभी पिताजी ने आवाज देकर हमें बुलाया।
आराम से उठकर उनके पास तक पहुँचे तो पिताजी ने बन्दूक हमें थमा दी और साथ में कारतूस की पेटी। दोनों चीजें एक साथ देकर पिताजी ने कहा कि-‘‘तुम चाचा बन गये हो और अब बड़े भी हो गये हो। चलाओ।’’ चूँकि घर में बन्दूक की सफाई आदि का काम हमारे जिम्मे ही था इस कारण बन्दूक के संचालन का तरीका भी हमें ज्ञात था। और फिर अंधा क्या चाहे दो आँखें, हमने हाँ कही तो पिताजी ने इतना कहा कि ‘‘चला लोगे? बस आराम से, सुरक्षा के साथ चलाना।’’
मन ही मन प्रसन्नता का अनुभव भी हो रहा था साथ ही एक डर भी लग रहा था कि कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाये। बन्दूक के चलने पर पीछे लगने वाले धक्के के बारे में भी सुन रखा था जिसका भी डर लग रहा था। मन ही मन खुद को हिम्मत बँधाई और खुले में आकर बन्दूक में कारतूस डाल ऊपर कर फायर कर दिया।
एक फायर हुआ, कैसे हुआ यह समझ ही नहीं आया। सब कुछ सही-सही दिखा। बन्दूक का झटका भी उतना नहीं लगा जितना सुन रखा था, बस इससे भी हिम्मत बँधी। बन्दूक की नाल खोल चला कारतूस बाहर निकाला। दूसरा कारतूस लगाया और किया दूसरा फायर, फिर तीसरा कारतूस डाला और तीसरा फायर। एक के बाद एक तीन फायर करके लगा कि बहुत बड़ा किला जीत लिया हो।
तीन फायर करने के बाद बन्दूक इस तरह थामकर बैठे मानो विश्व-विजय के बाद बापस आये हों। उसके बाद कई मौके आये जब हमने बन्दूक चलाई किन्तु जो रोमांच पहली बार चलाने में आया वह आज भी भुलाये नहीं भूलता है।