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सोमवार, 28 दिसंबर 2009

भूत होने की आशंका ने डरा दिया

रात गहरा चुकी थी और हम मित्रों द्वारा बातों के बताशे बनाने भी बन्द किये जा चुके थे, सो मन सोने को कर रहा था। सभी ने विदा ली और अपने-अपने कमरों की ओर चल दिये। ठण्ड के दिन होने के कारण रजाई में घुसते ही नींद ने अपना असर दिखाना शुरू किया।

लेटते ही नींद का आना तो होना नहीं था, दोस्त-यारों के साथ हुई बातों को सोच-सोच मन ही मन हँसते-मुस्कराते सोने का उपक्रम करने लगे। सोचते-विचारते, हँसते-मुस्कराते कब नींद लग गई पता ही नहीं चला।

एकाएक खर्र-खर्र की आवाज ने चौंक कर उठा दिया। हाथ मार कर मेज पर रखे टेबिल लैम्प को रोशन किया। आवाज बन्द। इधर-उधर, कमरे में निगाह मारी कि कहीं बिल्ली या फिर कोई चूहा आदि न घुस आया हो पर कहीं कुछ नहीं।

सपना समझ कर सिर को झटका और टेबिल लैम्प की लाइट को बुझा कर रजाई में फिर से घुस गये। खर्र-खर्र की आवाज आनी फिर शुरू। जैसे ही हाथ बढ़ा कर लाइट जलाई आवाज आनी बन्द।

एक-दो मिनट लाइट को जलने दिया पर आवाज नहीं हुई। अबकी पलंग पर बैठे ही रहे और लाइट बन्द कर दी। जैसे ही रोशनी गई आवाज आनी शुरू हुई। वहीं डरावनी सी खर्र-खर्र। बिना टेबिल लैम्प को जलाये आवाज को सुनने का प्रयास किया कि आ कहाँ से रही है? अगले ही पल समझ में आ गया कि आवाज खिड़की की तरफ से आ रही है।

टेबिल लैम्प जलाया तो आवाज आनी बन्द हो गई। लगा कि दोस्त लोग हैं जो डराना चाह रहे हैं क्योंकि आज हमारा रूम-पार्टनर भी नहीं था।
होता भी था कि हास्टल में किसी न किसी रूप में भूत-प्रेत-चुड़ैल आदि के किस्से सुनाये जाते थे। किसी कमरे को भुतहा बनाया जाता, किसी पेड़ पर भूत का निवास बताया जाता। यह सब लगभग रोज का नियम होता था। आज भी महफिल जमी थी बातों-बातों में डरावने किस्से भी तैर चुके थे।

एक-दो आवाजें दीं पर कोई आहट भी नहीं मिली। लाइट जलता छोड़कर रजाई ओढ़ कर लेटे पर आवाज नहीं आई। लाइट बन्द की और आवाज आनी शुरू। हम चुपचाप बिना आहट के यह समझने और देखने की कोशिश करने लग कि कहीं खिड़की पर कोई है तो नहीं? लगभग चार-पाँच मिनट की कोशिश के बाद भी कोई समझ न आया और कोई आहट भी नहीं समझ आई, हाँ, खर्र-खर्र की आवाज लगातार होती रही।

अब थोड़ा सा डर लगा। एक तो अकेले होने का डर और ऊपर से हास्टल के चर्चित भूतों का डर। हालांकि हमें कभी भी भूत-प्रेत जैसी बातों से डर नहीं लगा किन्तु माहौल का नया-नया होना और फिर रोज-रोज के वहीं किस्सों ने आज मन में डर पैदा कर दिया।



बहुत हिम्मत करके लाइट जलाई और एकदम से कूद कर खिड़की पर आ गये। यह सोचा कि यदि भूतों के हाथों मरना लिखा होगा तो यही सही और यदि दोस्त लोग हैं तो उनको सीधे-सीधे पकड़ा जा सकता है।

खिड़की से जो देखा उसने डर तो दूर कर दिया पर चौकीदार के ऊपर गुस्सा ला दिया। चिल्ला कर चौकीदार को बुलाया। खर्र-खर्र की आवाज को पैदा करने वाला कोई भूत नहीं और न ही हमारे कोई मित्र वगैरह थे। एक आवारा गाय हमारे कमरे के ठीक नीचे खड़े होकर वहाँ लगे पेड़ के तने से अपना सींग रगड़ती थी तो खर्र-खर्र की डरावनी सी आवाज होने लगती थी। जैसे ही लाइट जलती वह सींग रगड़ना रोक देती और जैसे ही लाइट बन्द होती.............।

चौकीदार बाबा ने आकर उस गाय को वहाँ से दूर भगाया और हम भी अपने मन में एक पल को बिठा चुके भूत को भगा कर फिर से रजाई में दुबक गये।

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चित्र साभार गूगल छवियों से

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

धांय-धांय-धांय.....एक के बाद एक तीन फायर


इसे जातिगत असर कहा जाये या फिर आसपास का वातावरण कि बचपन से ही हमें हथिययारों ने बहुत ही लुभाया है। गाँव में भी पुरानी जमींदारी होने के कारण नक्काशीदार तलवारें और अन्य अस्त्र-शस्त्र देखने को मिलते रहते थे। इसके अलावा घर में रिवाल्वर, बन्दूक होने के कारण भी इनके प्रति एक प्रकार की रुचि बनी हुई थी।
कभी-कभी बन्दूक और रिवाल्वर चलाने का मन भी होता था। घर में विशेष रूप से दशहरे के पूजन के बाद रिवाल्वर और बन्दूक चलाने का काम पिताजी या चाचाजी के द्वारा होता था। छत पर जब भी दशहरे और दीपावली पर पूजन के बाद बन्दूक, रिवाल्वर चलाने का उपक्रम होता तो हम बस ललचा कर ही रह जाते।
इन पर्वों के अलावा कभी खुशी के अवसर पर भी धमाके कर लिए जाते थे पर इनको करने की जिम्मेवारी सिर्फ और सिर्फ पिताजी की होती, हाँ, यदि घर में उस समय चाचा वगैरह हुए तो वे भी इसमें हिस्सा ले लेते थे।




बात होगी कोई 1990 की जब हम स्नातक के प्रथम वर्ष में थे। ग्वालियर से छुट्टियों में घर आना हुआ। उसी समय हमारे एक पारिवारिक मित्र के घर नवजात शिशु का आगमन हुआ। अवसर हम सभी के लिए खुशी का था। सभी लोग उन्हीं के घर पर उपस्थित थे।
जैसा कि होना था, बन्दूक तो चलनी ही थी। हम चिरपरिचित अंदाज में शांत बैठे थे क्योंकि हमें मालूम था कि पिताजी की दृष्टि में हम अभी इतने बड़े नहीं हुए कि बन्दूक चलाने को मिले। मन तो बहुत कर रहा था किन्तु कहते कैसे? चुपचाप बैठे थे कि तभी पिताजी ने आवाज देकर हमें बुलाया।
आराम से उठकर उनके पास तक पहुँचे तो पिताजी ने बन्दूक हमें थमा दी और साथ में कारतूस की पेटी। दोनों चीजें एक साथ देकर पिताजी ने कहा कि-‘‘तुम चाचा बन गये हो और अब बड़े भी हो गये हो। चलाओ।’’ चूँकि घर में बन्दूक की सफाई आदि का काम हमारे जिम्मे ही था इस कारण बन्दूक के संचालन का तरीका भी हमें ज्ञात था। और फिर अंधा क्या चाहे दो आँखें, हमने हाँ कही तो पिताजी ने इतना कहा कि ‘‘चला लोगे? बस आराम से, सुरक्षा के साथ चलाना।’’
मन ही मन प्रसन्नता का अनुभव भी हो रहा था साथ ही एक डर भी लग रहा था कि कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाये। बन्दूक के चलने पर पीछे लगने वाले धक्के के बारे में भी सुन रखा था जिसका भी डर लग रहा था। मन ही मन खुद को हिम्मत बँधाई और खुले में आकर बन्दूक में कारतूस डाल ऊपर कर फायर कर दिया।
एक फायर हुआ, कैसे हुआ यह समझ ही नहीं आया। सब कुछ सही-सही दिखा। बन्दूक का झटका भी उतना नहीं लगा जितना सुन रखा था, बस इससे भी हिम्मत बँधी। बन्दूक की नाल खोल चला कारतूस बाहर निकाला। दूसरा कारतूस लगाया और किया दूसरा फायर, फिर तीसरा कारतूस डाला और तीसरा फायर। एक के बाद एक तीन फायर करके लगा कि बहुत बड़ा किला जीत लिया हो।
तीन फायर करने के बाद बन्दूक इस तरह थामकर बैठे मानो विश्व-विजय के बाद बापस आये हों। उसके बाद कई मौके आये जब हमने बन्दूक चलाई किन्तु जो रोमांच पहली बार चलाने में आया वह आज भी भुलाये नहीं भूलता है।

सोमवार, 23 नवंबर 2009

पहले रैगिंग का डर और अब याद आती है वो आत्मीयता भरी रैगिंग

बात उन दिनों की है जब हमने साइंस कालेज, ग्वालियर में बी0एस-सी0 में अध्ययन के लिए प्रवेश लिया था। कालेज के हास्टल में हमारे रहने की व्यवस्था की गई थी। हास्टल के नाम से उस समय पूरे शरीर में सिरहन सी दौड़ जाती थी। डर लगा रहता था रैगिंग का।
घर में किसी से यह कहने का साहस नहीं हो पा रहा था कि हम हास्टल में नहीं रहेंगे। मरता क्या न करता की स्थिति में हमने 13 अगस्त को हास्टल में प्रवेश किया। पहले दिन हमें हास्टल छोड़ने हमारे पिताजी और चाचाजी आये।
पिताजी और चाचाजी ने हमारे आने से पहले ही हास्टल के सीनियर्स से मुलाकात कर ली थी क्योंकि शायद घर के लोग भी रैगिंग के नाम से परेशान तो रहे थे? सीनियर्स ने उनको आश्वस्त किया कि यहाँ रैगिंग के नाम पर ऐसा वैसा कुछ भी नहीं होता है।
हास्टल में दो-तीन दिन बड़ी ही अच्छी तरह से कटे। लगभग हर शाम को हास्टल के सभी लोग छत पर या बाहर लान में एकत्र होते और हँसी-मजाक चलता रहता। इसी बीच थोड़ी बहुत रैगिंग भी होती रहती पर मारपीट से कोसों दूर। हाँ, उन दो-चार लोगों को अवश्य ही दो-चार हाथ पड़े जिन्होंने सीनियर्स के साथ बदतमीजी की।
एक रात लगभग दस या साढ़े दस बजे होंगे, हास्टल के गेट पर दो-तीन मोटरसाइकिल और स्कूटर रुकने की आवाजें सुनाईं दीं। थोड़ी देर की शांति के बाद हमारे हास्टल का चैकीदार, जिसे हम लोग उनकी उम्र के कारण बाबा कहते थे, ने आकर डाइनिंग हाल में पहुँचने को कहा।
अब तो डर के मारे हालत खराब क्योंकि ऐसा सुन रखा था कि किसी दिन पुराने सीनियर छात्र रात को आते हैं और उसी समय जबरदस्त रैंगिंग होती थी यहाँ तक कि मारपीट भी। डरते-डरते डाइनिंग हाल पहुँचे, वहाँ सीनियर्स पहले से ही मौजूद थे।
हम सभी छात्रों को जो हास्टल में पहली बार प्रवेश पाये थे, उन्हें दीवार से टिक कर खड़े होने को कहा गया। पहली बार प्रवेश पाये छात्रों में बी0एस-सी0 प्रथम वर्ष के अलावा दूसरे वर्ष के तीसरे वर्ष के छात्र तो थे ही साथ में एम0एस-सी0 के छात्र भी थे। हाल के बीचों-बीच पड़ी मेज के एक ओर सीनियर्स बैठे हुए थे, उन्हीं के साथ पुराने सीनियर भी बैठे थे। वे पाँच लोग थे।
सबसे पहले हमारा परिचय उन लोगों से करवाया गया, कोई राजनीति कर रहा था तो कोई ठेकेदारी। कोई कहीं नौकरी में था तो कोई अपना कारोबार कर रहा था। सबका परिचय जानने के बाद हम लोगों का परिचय शुरू हुआ। सभी का परिचय हो जाने के बाद शुरू हुआ रैगिंग का सिलसिला।
रैगिंग के नाम पर सभी को कुछ न कुछ करके दिखाना था। किसी को नाचना पड़ा तो किसी को गाना था। किसी को लड़की बनके किसी लड़के के सामने प्यार का इजहार करना था तो किसी को पंखे का अपना दुश्मन मानकर गालियाँ सुनानी थीं। किसी दूसरे को ऐसा करते देख मजा आता किन्तु हँस भी नहीं सकते थे क्योंकि हँसे तो बनाया गया मुरगा।
जिसका भय था वह नहीं हुआ यानि कि मारपीट लेकिन खड़े-खड़े पैर और कमर की हालत खस्ता हुई जा रही थी। किसी लड़के के कुछ न कर पाने पर, किसी के द्वारा कुछ न बता पाने पर पता चला कि सभी को हाथ उठाकर खड़ा करने की सजा मिली। अब खड़े हैं आधा घंटे तक हाथ ऊपर किये।
इस बीच सभी सीनियर्स उठकर चाय पीने चले गये और कह भी गये कि हम चाय पीने जा रहे हैं तब तक हाथ ऊपर उठाये रहना। कोई मुरगा बना था, कोई एक पैर पर खड़ा था, किसी को हाथ उठाने की सजा तो कोई किसी और रूप में सजा काट रहा था। समय गुजरता जा रहा था और सीनियर्स थे कि आने का नाम ही नहीं ले रहे थे। लगभग डेढ घंटे के बाद उन लोगों का आना हुआ।
आने के बाद सभी की सजा समाप्त हुई। सीनियर्स ने हम सभी को कुछ टिप्स दिये कि कैसे मिलजुल कर रहना है। बताया कि प्रत्येक को अपने से बड़े का सम्मान करना है। सभी की मदद करनी है, यह भी बताया कि घर से दूर होने के कारण हम सभी को घर की तरह से रहना है।
इसके बाद सीनियर्स जाने का कार्यक्रम बनाने लगे। घड़ी में समय देखा तो सुबह के पाँच बजने को थे। इसके बाद सीनियर्स अपने साथ हम लोगों को रेलवे स्टेशन तक ले गये और वहाँ खुले हुए रेस्टोरेंट में बढ़िया चाय-नाश्ता करवाया। रात भर की थकान, रैगिंग का डर तब तक निकल चुका था।
इसके बाद भी हास्टल में रैगिंग हुई, मगर चुहल भरी। हाँ, मारपीट की घटना भी किसी एकाध के साथ ही हुई, वो भी एक-दो झापड़ों तक की, वो भी किसी आत्मीयता से भरी। आज लगभग 16 साल बाद भी हास्टल की वो आत्मीयता भरी रैगिंग बहुत याद आती है।

रविवार, 8 नवंबर 2009

पहले तो मेरे हाथ कँपे और फिर मेरे पैर.... ऐसे जीता पहला कप########## दीपक 'मशाल'




दोस्तों यूं तो जिंदगी की अप्रत्यक्ष लम्बाई वाले सफ़र में हमें कई अहसासों से रूबरू होना पड़ता है, कई चाहे अनचाहे अहसासों से हमारी मुलाक़ात कराती है ये ज़िन्दगी नाम की हसीना.... लेकिन हर अहसास की कभी ना कभी शुरुआत होती है, किसी की ज़िन्दगी में कोई अहसास बहुत पहले होता है तो कभी किसी की में बहुत बाद में. लेकिन मेरे ख्याल से हर किसी को लगभग एक जैसे अहसास से गुज़रना ही पड़ता है, हाँ उनके रूप रंग अलग हो सकते हैं इतना ज़रूर है........और जब किसी अहसास की हमारे जीवन में शुरुआत होती है तो उसे हम कभी नहीं भूल पाते, क्योंकि वह, उस तरह का हमारा पहला अहसास होता है जो कि जीवन भर के लिए अविस्मरणीय याद बन के ताजे सीमेंट पर  बनाये गए पैरों के निशान कि तरह हमेशा के लिए हमारे दिल और दिमाग पर छप जाता है.....हम अगर उसे याद ना भी करना चाहें तब भी वो अपने आप याद आ ही जाता है, ठीक वैसी ही खुशबू, ठीक वैसे ही ताप, वैसी ही हवा, वैसी ही आर्द्रता का माहौल बनाते हुए.......
अनगिनत पहले अहसासों में से एक वैसा ही अहसास मेरे सामने अपने आप ही आकर खड़ा हो जाता है और मुझे खींच ले जाता है उस समय में जब मुझे अपने जीवन का पहला कप एक पुरस्कार के रूप में मिला था(मैं पढ़ाई के अलावा अन्य कार्यकलापों में मिलने वाले पुरस्कारों की बात कर रहा हूँ)....
ज्यादा पुरानी नहीं बस सन १९९३ की बात है, जब मैं सरस्वती विद्या मंदिर, गल्ला मंडी, कोंच का ७ वीं कक्षा का  छात्र था, पढ़ाई में अब्बल तो नहीं था लेकिन हाँ फिर भी तीसरे-चौथे नंबर पर रहता ही था. प्रारंभ से ही कला विषय में मेरी गहरी रूचि थी और ये बात सबपे ज़ाहिर हो चुकी थी क्योंकि शायद मेरे हाथों से सफ़ेद कागज़ पे आड़ी तिरछी गिरती रेखाएं कला के आचार्य जी को मेरे अन्य साथियों से बेहतर लगती थीं....
हमारे जिले में एक व्यक्तिगत संस्था 'ललित कला अकादमी, उरई' द्वारा हर वर्ष एक जिला स्तरीय बाल कला प्रतियोगिता का आयोजन होता था. उस वर्ष विद्यालय का प्रतिनिधित्व करते हुए ३ अन्य वरिष्ठ छात्रों के साथ मुझे भी उसमे भाग लेने का अवसर मिला. प्रतियोगिता एक कन्याविद्यालय(नाथूराम पुरोहित बालिका विद्यालय) में आयोजित होने के कारण मन में एक अजीब सी घबराहट तो पहले से ही थी की अगर चित्र अच्छा नहीं बना तो लड़कियों के सामने बेईज्ज़ती होगी. देखिये आप कि उतनी छोटी सी उम्र में भी इज्ज़त-बेईज्ज़ती का ख्याल पनपने लगता है... खैर और कई विद्यालयों से आये करीब ८० प्रतिभागियों के साथ मैं जब वहां पहुंचा तो पता चला कि 'मेरे शहर का मेला' विषय पर हम सबको सीमित समयावधि में एक रंगीन चित्र बनाना था.. कांपते हाथों से लगा चित्र बनाने.. रंग भी भर दिया.... साथ में कनखियों से औरों के भी देखते जाता कि कहीं मुझसे बेहतर तो नहीं बन रहा है.....कहीं कोई मुझसे जल्दी तो नहीं बना रहा है.... खासकर लड़कियों से डर था और एक लड़के से जो कि शहर के मशहूर पेंटर का सबसे छोटा बेटा था लेकिन था वो भी कमाल का चित्रकार....
करीब १ घंटे की मशक्कत के बाद चित्र बन तो गया लेकिन औरों के चित्र देखता तो कहीं ना कहीं कसक उठती कि 'यार इसने जो चीज़ डाली है वो मैं भी डाल सकता था लेकिन मैं क्यों नहीं सोच पाया?  ओये उसकी कुल्फी वाले कि कमीज़ लाल अच्छी लग रही है मैंने हरी पहिना दी... उसने तो झूले में ८ पालकियां बनाईं मैंने ६ ही... अरे इसने तो मेले में बारिश भी दिखा दी अब इसका तो इनाम पक्का...' वगैरह वगैरह
अब बैठ गया मन मसोस कर और लगा सोचने कि 'बेटा दीपक तुम तो निकल लो पतली गली से, ये तुम्हारे बस का रोग नहीं, लोगों को तुझसे कई गुना ज्यादा कला कि समझ है.... आदि आदि.'
करीब आधे घंटे के बाद परिणाम घोषित हुए तो सबसे पहले तीसरे स्थान प्राप्त मेरे एक वरिष्ठ को बुलाया गया तो मन शंका से भर उठा कि 'इन भैया को पिछले साल जब प्रथम स्थान मिला था तो मैं सराहनीय पाया था, जब इस बार इन्हें खुद ही तृतीय मिला तो तेरा क्या होगा कालिए?'
दूसरे स्थान के लिए जैसी कि उम्मीद थी नगर के पेंटर महोदय के बेटे को बुलाया गया.... मैं बैठा रहा लड़कियों से नज़र बचा के दीवाल ताकने...
मगर अचानक प्रथम स्थान के लिए लगा जैसे एक नाम दीपक कुमार चौरसिया निर्णायक महोदय ने पुकारा हो...
मुझे अपने कानों पे विश्वास नहीं हुआ और लगा कि कोई और दीपक होगा.... लेकिन जब २ बार उन्होंने फिर से विद्यालय का नाम लेकर बुलाया तो शरीर में कुछ हलचल हुई.. लेकिन उठने की हिम्मत ही नहीं हुई, पैर जैसे जमीन पे चिपक गए... अब पुरस्कार लेने जाएँ तो कैसे जाएँ मेरे तो पैर कांपे जा रहे थे भाई, इस अप्रत्याशित निर्णय(आघात) से... तभी मेरे ही एक वरिष्ठ भैया जी ने मुझे हिलाया और कहा दीपक भाई जाओ तुम्हारा ही नाम पुकार रहे हैं मुबारक हो!!!!  तब जाके किसी तरह मैं खड़ा हुआ और लगभग दौड़ता सा स्टेज पर पहुंचा, पुरस्कार लेते समय आँखों के सामने अँधेरा छा गया, फिर भी जैसे तैसे अपने दिल की धड़कनों पर काबू पाते हुए... कप को अपने हाथों में लेके सीने से चिपटा  लिया.. ऐसे जैसे कि वो वापस छीन लेंगे... और अपनी जगह वापस आने के करीब १५-२० मिनट बाद जब सामान्य हुआ तो मन बल्लियों उछल रहा था और झूमने का मन कर रहा था..... लगता था की सारी दुनिया को चिल्ला चिल्ला के बता दूं कि मैंने क्या जीता है.....हो ना हो आधे मोहल्ले को तो वो कप दिखाया ही था.....
तो ऐसा था मेरा पहला कप जीतने का अहसास, जिसके बाद जीवन में कई पुरस्कार मिले कभी शिक्षा के लिए तो कभी कविता-कहानी के लिए, कभी अभिनय के लिए तो कभी सामान्य ज्ञान के लिए...... यहाँ तक कि उसी चित्र पर जिला स्तर पर भी द्वितीय स्थान मिला मगर उस अहसास के जैसा अहसास, फिर कभी नहीं हुआ... यहाँ पर एक आवश्यक प्रार्थना भी सुना रहा हूँ जो अक्सर प्रभु से करता रहता हूँ......जिसके बिना ये पोस्ट अधूरी है......


इक हाथ
कलम दी देव मुझे,
दूजे में
कूंची पकड़ा दी,
संवाद मंच पर बोल सकूं
ऐसी है तुमने जिह्वा दी.......
पर इतने सारे मैं हुनर लिए
कहीं विफल सिद्ध ना हो जाऊं,
तूने तो
गुण भर दिए बहुत,
खुद दोषयुक्त ना हो जाऊं.
भूखे बच्चों के पेटों को
कर सकूं अगर,
तो तृप्त करुँ...
जो बस माथ तुम्हारे चढ़ता हो
वो धवल दुग्ध ना हो जाऊं......
इतनी सी रखना कृपा प्रभो
मैं आत्ममुग्ध ना हो पाऊं......
मैं आत्म मुग्ध ना हो पाऊं....
आपका-
दीपक 'मशाल'
चित्रांकन-  दीपक 'मशाल'

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

जब पहली बार स्कूटर चलाया

कालेज में पढाई के दिनों एक रविवारीय अवकाश के दिन मै दोपहर में श्री कल्याण राजपूत छात्रावास ,सीकर के अपने कमरे में विश्राम कर रहा था कि मेरे दो दोस्त रामपाल जी गाडोदिया और रविन्द्र जी जाजू प्रिया स्कूटर लेकर आये और कहने लगे कि चलो औधोगिक क्षेत्र की सूनी पड़ी सड़क पर स्कूटर चलाना सीखते है वे दोनों दोस्त समझते थे कि मुझे स्कूटर चलाने का अनुभव है ताकि सिखने में मै उनकी पूरी मदद करूँगा | हालाँकि उस दिन तक मुझे भी स्कूटर चलाना नहीं आता था लेकिन बस यूँ ही फेंक रखी थी कि मै तो ड्राइविंग में एक्सपर्ट हूँ | खैर में भी स्कूटर पर उन दोनों के पीछे बैठ गया स्कूटर रामपाल जी चला रहे थे उन्होंने भी उस दिन पहली बार स्कूटर पर हाथ मारा था | उस दिन रामपाल जी के बड़े भाई ओम जी जिनका स्कूटर था बाहर गए हुए थे इसलिए पीछे से स्कूटर उडाने का अच्छा मौका हाथ लगा था |
उस दिन सबसे मजे की बात तो यह रही कि रामपाल जी पहली बार स्कूटर चलाकर ५ कि.मी. भीड़ भाड़ वाले इलाके से निकल मेरे होस्टल पहुँच गए और फिर भी औधोगिक क्षेत्र की सूनी सड़क पर जाकर चलाना सीखना चाहते थे |
रास्ते में एक मौड़ पर स्कूटर गिरने के बाद आखिर हम तीनो औधोगिक क्षेत्र की सूनी पड़ी सड़क पर पहुँच गए और वहां बारी बारी से एक एक कर स्कूटर चलाने लगे | जब पहली बार स्कूटर में गियर डाल जैसे ही कल्च छोडा स्कूटर झटका खाकर बंद हो गया जिसे मैंने यह कह कर टाल दिया कि ये स्कूटर पहली बार हाथ में आया है ना इसलिए बंद हो गया | लेकिन दूसरी बार बिना किसी दिक्कत के हम स्कूटर चलाने में कामयाब रहे और तो और उसी समय पांच सात किलोमीटर चलाने के बाद साइकिल की तर्ज पर स्कूटर भी थोडा हाथ छोड़कर चलाने की कोशिश की | उसमे भी कामयाबी मिल ही गयी और हम अपने दोनों दोस्तों को यह यकीन दिलाने में कामयाब रहे कि हमें तो स्कूटर चलाना पहले से ही आता था लेकिन उस एक आध घंटे में बिना घुटने तुडवाये जो स्कूटर चलाने पर अपने मन में अपने आप पर जो गर्व का अहसास हो रहा था उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता |

चित्र कालेज में पढ़ते समय का है जिसमे क्रमश: बाए से रविन्द्र जी जाजू ,मै व रामपाल जी है

रविवार, 18 अक्तूबर 2009

पहला अहसास --ज्ञान व अन्य भाषा का ज्ञान भी अत्यावश्यक.----

हम एक सामान्य, सहज,स्वतः आने वाले ऋजु-मार्ग के अनुगामी परिवार थे , अधिक तेज दौड़ने में विशवास न रखकर स्वतः ही जो प्राप्त हो , सत्य, न्याय मार्ग से; उस के अनुगमन करने वाले पिता एक मध्यम आय व वर्ग के सम्माननीय नागरिक ; जो सोचते थे कि व्यक्ति को अच्छा व्यक्ति होना चाहिए ,धंधा तो कुछ भी किया जासकता है जीवन यापन के लिए , हम बच्चे, भाई -बहिन आदि अच्छी तरह ज्ञान लें, पास हों तो ठीक ,बहुत मारा-मारी ,अच्छे नम्बर आदि की चिंता नहीं। मेरे ख्याल में उस समय सभी के यही विचार थे। (सभी के एकसे कभी नहीं होते ), यद्यपि उस समय स्कूल छोड़ने पर दंड ,फाइन होता थापर फ़िर भी अधिकतर अबिभावक चिंता नहीं करते थे , सरकार शिक्षा को प्रोमोट कर रही थी। नेता , अफसर,व्यापारी ,सामान्य जन-ईमानदार था, हाँ आज़ादी के फल चखने की प्रवृत्ति धीरे-धीरे सिर उठा रही थी। भारतीय ज्ञान, संस्कृति,आदि पर हमले सुनकर बुरा तो लगता था पर विरोध की कोई राह नहीं दिखती थी ।
में ५थ क्लास पास करके घर बैठ गया , कुछ भी कर लेंगे,परन्तु लगभग २ वर्ष बाद मेरे बड़े भाई (जो परिवार में अधिक जागरूक थे व १० क्लास में थे ), ने अचानक सोचा कि तुम ८ वीं की परिक्षा प्राइवेट दो , फ़ेल भी चलेगा । फेल होने पर मुझे एक स्कूल में ८थ में भर्ती किया गया।
मुझे अंग्रेजी बिल्कुल नहीं आती थी, दूसरे ही दिन , स्कूल में क्लास का टाइम टेबल अंग्रेजी में था ; मैंने क्लास -मानीटर से पूछा , यह ,क्या लिखा है? उसका उत्तर था , तुम नहीं समझ पाओगे । बस वही क्षण था जब मैंने प्रथम बार अहसास किया कि मुझे,ज्ञान की , अंग्रेजी भाषा ज्ञान की कितनी आवश्यकता है , अंग्रेजी दां लोग, विदेशी रंग में रंगे लोगों को जवाब देने के लिए यह भाषा अवश्य सीखना चाहिए, विरोधी स्वरों के प्रत्युत्तर की यह भी एक राह है ,तथा आगे बढ़ने के लिए, शिक्षा प्राप्त करना कितना आवश्यक है ; और फ़िर आज तक मैंने मुड़ करपीछे नहीं देखा। संसार के साहित्य, संस्कृति, धर्म, विचार, दर्शन जानकर मुझे पुनः अनुभव व निश्चय हुआ कि --" पर भारत की बात निराली " , हर क्रिटिसिज्म व विरोधी विचार का उत्तर दिया जा सकता है।

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

पब्लिक फोन से मिलाते रहे एस0टी0डी0

आज के बच्चे पैदा होते ही फोन, मोबाइल का इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं। हमें अच्छी तरह याद है कि उस समय हम कक्षा आठ में पढ़ा करते थे। हमारे चाचा जी उस समय कानपुर में नौकरी करते थे। एक बार घर आने पर उन्होंने अपने बैंक का फोन नम्बर पिताजी को यह कहते हुए दिया कि यह फोन हमारी टेबिल पर ही है अब सीधे बात हो जाया करेगी। हमने और हमारे छोटे भाई ने भी चाचा से उनका फोन नम्बर ले लिया।
हमने कक्षा 6 से कक्षा 12 तक की शिक्षा राजकीय इंटर कालेज से प्राप्त की है। इसके पास ही जिला चिकित्सालय है, जहाँ हमारी मामी उन दिनों नौकरी किया करतीं थीं। मामा-मामी चिकित्सालय के कैम्पस में ही रहा करते थे। हम अपने दोस्तों सहित लगभग रोज ही मामा-मामी के घर जाया करते थे।
इसी आवागमन के दौरान हमने एक दिन देखा कि चिकित्सालय में इंमरजेंसी वार्ड में एक फोन लगाया जा रहा है। हम लोगों के लिए बड़ी ही आश्चर्य की चीज थी वह फोन। अब मौका लगते ही हम लोग फोन को छूकर देख आते थे। अभी तक तो फोन अपने प्रधानाचार्य के कमरे में ही लगा देखा था या फिर मामी के आफिस में पर यहाँ कभी छूने को तो मिला नहीं था।
एक दिन मन में आया कि चाचा से बात की जाये। मामा से पूछा कि जो फोन यहाँ लगा है उससे बात कैसे होती है? मामा ने बताया कि उसमें नम्बर लिखे हैं, जिस फोन नम्बर पर बात करनी हो उनको घुमाओ और जब एक ट्रिन-ट्रिन जैसी आवाज सुनाई दे तो उसमें एक रुपये का सिक्का डाल दो। हमसे मामा ने पूछा कि कहाँ बात करनी है तो हमने कहा बस ऐसे ही जानकारी कर रहे थे।
अब समझ में आ गया था कि फोन कैसे करना है। वहाँ जाकर एक-दो नम्बर को घुमा कर ट्रिन-ट्रिन की आवाज भी सुन आये थे और अपनी छोटी सी जेबखर्च की राशि में से एक रुपया गँवा कर आवाज भी सुन आये थे। लगा कि अब चाचा से बात करनी आसान हो जायेगी। एक रुपये में जब चाहो चाचा से बात कर लो। खुशी तो बहुत थी पर ये मालूम नहीं था कि ये पब्लिक टेलीफोन है जो मात्र लोकल ही काम करेगा।
एक दिन चुपचाप फोन के पास पहुँचे, एक हथेली में चाचा की बैंक का नम्बर और दूसरी में एक का सिक्का दबाये। नम्बर घुमाये और इन्तजार कि अब ट्रिन-ट्रिन की आवाज सुनाई दे, नहीं सुनाई दी। एक बार, दो बार, तीन बार......फिर न जाने कितनी बार नम्बर घुमाया पर आवाज सुनाई नहीं दी।
पहले लगा कि शायद फोन खराब है। तभी एक आदमी ने आकर बात की तो लगा कि हम लोग ही गड़बड़ कर रहे हैं। अब हताश, हारे हुए सिपाही की तरह से बापस लौटे। दुख था चाचा से बात न हो पाने का फिर लगा कि कहीं गलत नम्बर तो नहीं लिख लिया? दिमाग दौड़ाते हुए घर आये, नम्बर देखा, एकदम सही।
घर में पिताजी से पूछने की हिम्मत नहीं हुई। अगले दिन कालेज से मामा के पास गये और अपनी समस्या बताई। मामा ने समझाया कि इस फोन से बस लोकल ही बात हो सकती है, एस0टी0डी0 नहीं। तब अपनी मूर्खता पर बहुत हँसी आई जो गाहेबगाहे आज भी फोन करने की बात सोच-सोच का आ ही जाती है। नादानी भले ही रही हो पर फोन करने का एहसास, फोन छूने का एहसास आज भी है।
फोन का वह एहसास भी है जब पहली बार फोन से बात की थी। इस बारे में बाद में।

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

कार चलाना सीखा बिना किसी सहारे के

दीपावली के समय की बात है, आज से लगभग 12-13 वर्ष पहले। हमारे चाचाजी उस समय ग्वालियर में थे और अपनी कार से आये थे। उन्होंने उस समय कार नई-नई खरीदी थी। तब तक हमें कार चलानी नहीं आती थी। घर में पहली कार भी वही थी। अपनी पढ़ाई के दौरान ग्वालियर में कई दोस्तों के घर में कार थी पर सोचा करते थे कि जब अपने घर में कार आयेगी तभी चलाना सीखेंगे।
त्यौहारों पर सभी चाचा लोग यहाँ उरई में इकट्ठा होकर उन्हें हँसी-खुशी से मनाते हैं। अब माहौल भी उमंग भरा था और घर में कार भी खड़ी थी। हमने चाचा से कार सिखाने के लिए कहा तो चाचा ने कहा कि हमें सिखाते हुए डर लगता है तुम खुद सीख लो।
अब समझ नहीं आया कि क्या किया जाये? एक-दो दिन तो ऐसे ही ऊहापोह में गुजर गये। तीसरे दिन हमने और हमारे छोटे भाई ने हिम्मत करके कार की चाबी उठाई और घुस गये कार में। हालत ये थी कि न तो हमें कार चलानी आती थी और न ही हमारे छोटे भाई को।
इसके बाद भी हिम्मत करके चाबी लगाई, घुमाई और कार स्टार्ट। चूँकि हमारे घर के पास जगह कम होने के कारण कार सीधी तो आ जाती है पर जब उसे सड़क तक लाना हो तो बैक करके ही लाना होता है। कार चलाना सीखना भी था तो समझ नहीं आया कि अभी सीधे-सीधे तो चलानी आती नहीं है बैक कैसे करेंगे?
हम बैठे थे ड्राइविंग सीट पर और छोटा भाई बगल में। लगाया बैक गियर और कार धीरे-धीरे पीछे को जाने लगी। ऐसा अभी तक आराम से हो रहा था तो हिम्मत भी आ रही थी। जैसे-तैसे चार-पाँच बार कार के बन्द होने के बाद वह सड़क पर आ गई।
अब लगाया गियर एक और दबाया एक्सीलेटर पर गाड़ी रफ्तार ही न पकड़े। छोटा भाई कहें कि ब्रेक पर पैर न रखना, हमने देखा कि हम ब्रेक पर पैर भी नहीं रखे हैं पर गाड़ी अपनी रफ्तार में नहीं है।
लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाये। कार को बन्द कर नीचे उतर आये। अबकी छोटा भाई ड्राइविंग सीट पर बैठा कार स्टार्ट और फिर वही स्थिति। कुछ समझ नहीं आया। तभी मोहल्ले के एक भाईसाहब निकले, हमने आवाज देकर उन्हें बुलाया और अपनी समस्या बताई। भाईसाहब ने एक पल की देरी किये बिना कहा कि देखो हैंडब्रेक तो नहीं लगा है?
अब पता तो था नहीं कि ये क्या बला होती है। भाईसाहब ने बताया और उस समस्या को दूर किया। अब कार अपनी असल रफ्तार पर थी। अब एक और समस्या, गियर लगायें तो उसी तरफ देखने लगें कि कौन सा लगा है और पता चले के कार सड़क के दूसरी ओर भागने लगे। फिर कार को सड़क के बीच में लायें और जब अगला गियर डालें तो फिर वही स्थिति। लगभग एक घंटे तक सड़क पर कार को हम दोनों भाई दौड़ाते रहे और सीख भी गये।
इस कार सीखने में अच्छाई यह रही कि हमने किसी को चोटिल नहीं किया। अगले दिन हम अपनी दादी, अम्मा, चाची को कार में बिठा कर पास के राध-कृष्ण मंदिर के दर्शन करवाने ले गये। भीड़ में कार चलाना सीखना और फिर परिवार के सदस्यों को घुमाने ने गजब का आत्मविश्वास ड्राइविंग को लेकर पैदा किया जो आज तक बना हुआ है।
चाचा की एक बात आज भी याद आती है जो उन्होंने हम लोगों के लौटने के बाद कही थी कि यदि तुममे कार चलाना सीखने की हिम्मत होगी तो बिना किसी सहारे के सीख लोगे, हम क्या कोई भी तुमको सिखा नहीं सकेगा। आज लगता है कि यह बात हर एक काम में लागू होती है।

बुधवार, 23 सितंबर 2009

जब सिनेमाघर में पहली फिल्म देखी

दसवीं कक्षा में आने तक कभी सिनेमाघर में फिल्म नहीं देखी थी उससे पहले नागौर जिले के मोलासर कस्बे में भरने वाले हिंडोला नामक मेले में प्रोजेक्टर के माध्यम से परदे पर खुले मैदान में दिखाई जाने वाली फिल्मे ही देख पाए था मेले में शहीदों पर व देश भक्ति की कई फिल्मे फ्री में दिखाई जाती थी मेले का प्रबंधन मोलासर निवासी प्रसिद्ध ओद्योगिक सोमानी परिवार द्वारा किया जाता है | चचेरा भाई हनुमान सिंह फिल्मो व फ़िल्मी गानों का शौकीन था उसने उस वक्त तक कई फिल्मे भी देख रखी थी वह अक्सर हमें फिल्मो की कहानियां व सिनेमाघरों के बारे में बताया करता था इस मामले में हम अपने आप को उसके सामने निरा बुद्दू ही समझते थे साथ ही हनुमान सिंह की प्रतिभा के कायल थे कि कैसे ये तीन तीन घंटे की पूरी फिल्मो की कहानी और डायलोग याद कर लेता है जबकि हमें तो एक प्रश्न का उत्तर याद करने के लिए कितनी रटत लगानी पड़ती है | हनुमान से फिल्मो की कहानियां व सिनेमाघरों की बाते सुनकर सिनेमाघर में फिल्म देखने की बड़ी जिज्ञासा होती थी |
आखिर दसवी कक्षा में पढ़ते समय ही हमें जीवन में पहली बार सिनेमाघर में फिल्म देखने का सोभाग्य प्राप्त हुआ और वह भी जयपुर के विश्व प्रसिद्ध सिनेमाघर " राजमंदिर सिनेमाघर " में | दसवी कक्षा में पढ़ते समय हमारी सरकारी स्कूल " राजकीय माध्यमिक विद्यालय ,खूड " के शिक्षकों ने हमें शेक्षणिक भ्रमण पर ले जाने का दो दिवसीय कार्यक्रम बनाया | कार्यक्रम के अनुसार हमारा दल खूड कस्बे से रवाना होकर सुबह अजमेर पहुंचा जहाँ दिन भर अजमेर भ्रमण के बाद हम शाम को तीर्थ राज पुष्कर पहुंचे | रात्री विश्राम के बाद सुबह पुष्कर सरोवर में स्नान कर ब्रह्मा मंदिर सहित अन्य मंदिरों के दर्शन कर हम जयपुर पहुंचे | दिन भर जयपुर आमेर आदि के दर्शन करने के बाद हमें रात ९ बजे राजमंदिर सिनेमाघर में फिल्म दिखाने के कार्यक्रम के तहत हमें राजमंदिर सिनेमाघर ले जाया गया | जीवन में पहली बार सिनेमाघर और वो भी प्रसिद्ध राजमंदिर में फिल्म देखने की उत्सुकता व रोमांच का जो अहसास उस वक्त हो रहा था उसे तो में सिर्फ महसूस ही कर सकता हूँ शब्दों में बयान नहीं कर सकता | लेकिन उस रोमांच के साथ मन में एक शंका भी उथल पुथल मचा रही थी क्योकि हनुमान ने बताया था कि राजमंदिर सिनेमाघर में ऐसे गलीचे बिछे है जिन पर पैर रखते ही पैर आधा फीट गलीचे के अन्दर धंस जाता है और समझो ध्यान नहीं रखा तो वहीँ धडाम | हालाँकि गलीचे पर गिरने से चोट तो नहीं लगेगी पर फजीहत तो होगी ही ना | उसने कुर्सियों के बारे में भी बताया कि बैठते ही फेल जाती है वहां भी धडाम होने से बचने हेतु सावधानी बरतनी पड़ती है |
गुरुजन साथ थे तो हमें अनुशासन में तो रहना ही था अतः सभी छात्रों ने एक लाइन बना सिनेमाघर में घुसने के लिए कदम बढाये | सिनेमाघर में घुसते ही वहां बिछे शानदार गलीचे पर बड़े संभल कर हमने कदम रखे कि हनुमान ने जो बता रखा था वो ना हो जाय यही नहीं सीट पर बैठते समय भी पूरी सावधानी बरती ! कही धडाम ना हो जाये और पूरी क्लास जिसमे होसियार बनते थे के सामने कहीं फजीहत ना हो जाये | खैर सीट पर बैठते ही फिल्म " सावन को आने दो " शुरू हो गयी | कब तीन घंटे बीते और कब फिल्म पूरी हो गयी पता ही नहीं चला | जब राजमंदिर सिनेमाघर से बाहर निकले तो अपने आप पर बड़ा फक्र हो रहा था आखिर हमने अपने जीवन में फिल्म देखने की शुरुआत राजमंदिर जैसे विश्व प्रसिद्ध सिनेमाघर से जो की थी | ;

बुधवार, 16 सितंबर 2009

लगे कि हर आदमी टिकट चेकर है

यह घटना एस समय की है जब लातूर में भूकम्प आया हुआ था। हम अपने छोटे भाई हर्षेन्द्र के साथ एक टेस्ट देने के लिए आगरा गये थे। रेलवे की परीक्षा थी, टेस्ट दिया और बापस चल दिये। हम लोगों को कानपुर आना था। टेस्ट देने के बाद हम लोग चले तो रेलवे स्टेशन पर पता लगा कि उस समय कानपुर के लिए कोई ट्रेन नहीं है। जानकारी करने पर मालूम हुआ कि आगरा से टुंडला पहुँच कर वहाँ से आसानी से कानपुर के लिए ट्रेन मिल जायेगी।
आगरा से टुंडला बस से आने के बाद रेलवे स्टेशन पहुँचे। आपकी एक शंका को दूर करने के लिए बताते चलें कि एक तो टेस्ट होने के कारण बसों में भीड़ बहुत थी दूसरे हमें बस की यात्रा तकलीफ ज्यादा देती है। इस कारण से हम ट्रेन से यात्रा करने की सोच रहे थे।
टुंडला स्टेशन पर जैसे ही पहुँचे पता लगा कि एक ट्रेन आ रही है। हालांकि ट्रेन थी पैसेंजर और कानपुर पहुँचना बहुत ही आवश्यक था। इस ट्रेन के बाद दो-तीन घंटे कोई ट्रेन भी नहीं थी। जल्दी से टिकट खिड़की पर पहुँचे तो वह समय सम्बन्धित बाबू की ड्यूटी बदलने का था तो वह अपने हिसाब किताब में व्यस्त था। ट्रेन सामने आती दिख रही थी। उससे बड़ी अनुनय-विनय की पर वह नहीं माना। अब लगा कि यह ट्रेन तो निकली। हमारे भाई ने प्लेटफार्म से आकर सूचना दी कि गाड़ी आकर खड़ी हो गई है। अब तो और भी हालत खराब।
पहले सोचा कि बिना टिकट ही चढ़ जायें पर कभी बिना टिकट यात्रा न करने के कारण से हिम्मत नहीं हो रही थी। सोचा-विचारी में समय न गँवा कर हमने तुरन्त सामने दरवाजे पर खड़े एक टिकट चेकर से अपनी समस्या बताई। उस ने बिना कोई तवज्जो दिये पूरी लापरवाही से कहा कि बैठ जाओ, पैसेंजर में कोई नहीं पकड़ता।
समझ नहीं आया कि क्या करें? सुन तो बहुत रखा था कि इटावा रूट पर चेकिंग नहीं होती पर वही हिम्मत की बात।
अन्त में अपने भाई की तरफ देखा और उस टिकट चेक करने वाले से एक बार और पूछा कि भाईसाहब कोई दिक्कत तो नहीं होगी?
शायद उसको लगा होगा कि कोई अनाड़ी हैं जो पहली बार बिना टिकट यात्रा करने की हिम्मत जुटा रहे हैं। इस बार उसने थोड़ा सा ध्यान हम लोगों की ओर दिया और कहा कि वैसे बिना टिकट जाने में कोई समस्या नहीं फिर भी यदि टिकट लेना है तो दो स्टेशन के बाद यह गाड़ी थोड़ी देर तक रुकती है, वहाँ से ले लेना।
बस हम दोनों भाई तुरन्त लपके क्योंकि गाड़ी भी रेंगने लगी थी। बैठ तो गये, सीट भी मिल गई पर....।
आने जाने वाला हर आदमी लगे कि टिकट चेक करने वाला आ गया। कभी इस तरफ देखें, कभी उस तरफ देखें। लगभग 55 मिनट की यात्रा के बाद वह स्टेशन आया जहाँ से टिकट लिया जा सकता था, हालांकि उसके पहले भी दोनों स्टेशन पर टिकट लेने का प्रयास किया गया पर असफल रहा।
अब सुकून आया और कानपुर तक आराम से आये। आज भी छोटी सी मगर बिना टिकट यात्रा याद है। हम दोनों भाई अब भी कभी-कभी उस समय की अपनी हालत की चर्चा करके हँस लेते हैं।

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

महाशोक: डॉ चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' नहीं रहीं-ये पोस्ट शब्दकार पर


महाशोक: डॉ चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' नहीं रहीं -acharya sanjiv 'salil

ये पोस्ट शब्दकार पर प्रकाशित है। इस ब्लॉग की प्रकृति के अनुसार न होने के कारण इसे यहाँ से निकाल दिया गया है।

कृपया पहला एहसास से जुड़े सभी साथी सहयोग करें।

बार बार एक ही बात दोहराते हुए हमें भी शर्म आती है। आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगे।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

हम कब तक अपराधियों को महिमा मंडित करते रहेंगे और नयी पीढी के लिए क्या यही सन्देश है ?

इस पोस्ट को यहाँ से हटा दिया गया है क्योंकि यह इस ब्लॉग की प्रकृति से मेल नहीं खाती थी।
यह पोस्ट अभी हमने दस्तावेज़ ब्लॉग
पर प्रकाशित कर दी है।

आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगे।
आप सभी से बारम्बार आग्रह है कि ब्लॉग पर इस प्रकार की रचनाएं पोस्ट करें जो आपके जीवन में घटित किसी भी घटना, स्थिति से उपजे पहले एहसास की याद दिलाती हो।

कृपया एक बात को बार बार हमसे कहलवा कर हमें शर्मिंदा न करें। आप सभी अनुभव में हमसे बड़े हैं, कृपया सहयोग करें। ब्लॉग की प्रकृति से मेल खाती रचनाएँ ही पोस्ट करें।

बेटी के बड़े होने का पहला एहसास

होली के त्यौहार पर हर वर्ष की तरह मैंने गुंजिया और दही बड़े बनाये थे! बेटी बोली -माँ कुछ ज्यादा बना लेना ,मेरे कुछ मित्र आयेगे !मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी! ऐसे अवसरों पर दोस्तों और मित्रों का खानपान तो चलता ही रहता है !
होली के दिन करीब दस बजे दरवाजे के सामने सड़क पर जोर जोर से हौर्न बजने लगे! दूसरे ही मिनिट किवाड़ों पर थपकियाँ सुनाई दीं मानो तबले पर कहरवा बज रहा हो ! बेटी पिंकी ने दरवाजा खोला !एक -एक करके ७-८ लड़के -लड़कियां ड्राइंग -रूम में घुस आये ! मेरी हालत देखने लायक थी !अभी तक मैंने उसकी सहेलियां ही देखी थीं सहेला नहीं ! एकाएक निंद्रा टूटी -कालिज में तो लड़के -लड़कियाँ दोनों पढ़ते हैं, मित्र तो कोई भी हो सकता है !
पिंकी ने हमें उन सबसे मिलाया , कुछ खानपान करने के बाद बोली --माँ ,हम होली खेलने जा रहे हैं ,लौटने में चार -पॉँच बज जायेंगे !
एक झटका फिर लगा ! दिमाग में भूचाल आया गया - ये मिलकर होली खेलेंगे !-अन्दर के संस्कार बोल उठे !मर्यादा का गला घुटने लगा ! थूक सटकते पूछा -क्या बहुत दूर जाना है ? लौटोगी कैसे ?
तभी पिंकी का सहपाठी बोला -आंटी ,चिंता न करो! पहले आधी दर्जन बहनों को उनके घर छोड़ेंगे फिर अपने घर की ओर कदम बढायेगे !
कर्तव्य का इतना बोध

इन अनुभवों के मध्य सुमित्रा नन्द की कुछ पंक्तियाँ स्मरण हो आई --

'फिर परियों के बच्चों से हम
सुभग सीप से पंख पसार
समुन्द्र तैरते शुची ज्योंत्सना में
पकड़ इंदु के कर सुकुमार !'
--------------------------
सुधा भार्गव

अध्यापनका प्रारंभिक अनुभव

मैंने दयानंद वैदिक महाविद्यालय ,उरई में ४ सितम्बर १९७४ को अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया । मई अपने महाविद्यालय का ही छात्र रह चुका था । पहले ही दिन हमारे विभागाध्यक्ष डा ० उदय नारायण शुक्ल ने कहा ,' जाओ ,B. A.(Final) का Class पढ़ाओ। यह कक्षा सबसे अधिक शरारती छात्रों की हुआ करती थी । मै जब क्लास में गया और पढाना शुरू किया तो देखा कि छात्र -छात्राएं मंद -मंद मुस्करा रहे हैं और मेरी बात पर अधिक ध्यान नहीं दे रहे हैं। मैंने मुड़ कर Black Board की तरफ़ देखा तो वहाँ पर एक शेर लिखा था -
इश्क का जौके नज़ारा मुफ्त में बदनाम है ;
हुस्न ख़ुद बेताब है जलवे दिखाने के लिए ।
मुझे बड़ा क्रोध आया पर अपने पर काबू रखते हुए बच्चों को समझाया कि कक्षा में छात्र -छात्राएं एक परिवार की तरह होते है ,अगर कुछ बाहरी असामाजिक तत्व मौका पा कर छात्रों के लिए कुछ उलटी -सीधी बातें लिख देते हैं तो कक्षा शुरू होने से पूर्व उन्हें मिटा दिया करें। यदि कोई छात्र रँगे हाथों पकड़ा गया तो उसे कालेज से निकला भी जा सकता है। छात्रों ने मेरी बात पर सहमति जताई ।अगले दिन जब मै पुनः कक्षा में गया तो Board पर एक शेर लिखा हुआ था -
हमने तुमसे मोहब्बत की थी ,अबला समझ कर ;
तुम्हारे चचा हमें ठोक गए ,तबला समझ कर ।
मुझे बड़ी हँसी आयी और एहसास हुआ कि बच्चों ने मेरा संदेश सही ढंग से समझ लिया । उस दिन के बाद से कभी भी मेरी कक्षा कोई भी अभद्र टिप्पणी लिखी हुई नहीं मिली । आज ३५ वर्षों के बाद भी जब इस घटना की याद आती है तो बरबस ही होठों पर मुस्कान आ जाती है।

साइकिल सवारी और धरती माता की गोद


किसी भी व्यक्ति के लिए पहली बार कोई नया काम करना कितना कठिन होगा कह नहीं सकते किन्तु
हमारे लिए पहली बार साइकिल चलाना तो ऐसा था मानो हवाई जहाज चला रहे हों।
उस समय कक्षा पाँच में पढ़ा करते थे। साइकिल चलाने का शौक चढ़ा। घर में उस समय पिताजी की साइकिल थी। पिताजी चले जाते थे कचहरी और शाम को आते, तब तक हम भी अपने स्कूल से लौट आते थे। कई बार की हिम्मत भरी कोशिशों के बाद पिताजी से साइकिल चलाने की मंजूरी ले ली।
उस समय तक हमने साफ करने की दृष्टि से या फिर अपने बड़े लोगों के साथ बाजार, स्कूल आदि जाने के समय ही साइकिल को हाथ लगाया था। अब साइकिल चलानी तो आती ही नहीं थी तो बस उसे पकड़े पकड़े खाली लुड़काते ही रहे। कई दिनों के बाद साइकिल पर इतना नियंत्रण बना पाये कि वह गिरे नहीं या फिर इधर उधर झुके नहीं।
एक दिन हमारे स्कूल में किसी संस्था या फिर किसी और स्कूल के द्वारा (यह ठीक से याद नहीं) एक टेस्ट का आयोजन किया गया। इस पूरे टेस्ट में हमारे सबसे ज्यादा नम्बर आये थे। हम भी बहुत खुश थे और इसी खुशी में हमने पिताजी से साइकिल चलाने की अनुमति माँग ली।
अब क्या था? कई सप्ताह हो गये थे साइकिल को खाली लुड़काते लुड़काते। आज सोचा कि पिताजी भी खुश हैं हमारे रिजल्ट से, हो सकता है कि कुछ न कहें। बस आव देखा न ताव कोशिश करके चढ़ गये साइकिल पर। दो चार पैडल ही मारे होंगे कि साइकिल एक ओर को झुकने लगी।
यदि साइकिल चलानी आती होती तो चला पाते पर नहीं। अब हमारी समझ में नहीं आया कि क्या करें? न तो हैंडल छोड़ा जाये और न ही पैडल चलाना रोका जा रहा था। साइकिल झुकती भी जा रही थी और गति भी पकड़ती जा रही थी। गति और बढ़ती, पैडल और चलते, हैंडल और सँभलता उससे पहले ही वही हुआ जो होना था।
हम साइकिल समेत धरती माता की गोद में आ गिरे। तुरन्त खड़े हुए कि कहीं किसी ने देख न लिया हो?
कपड़े झाड़कर चुपचाप घर आकर साइकिल आराम से खड़ी कर दी। शाम को बाजार जाते समय पिताजी को उसकी कुछ बिगड़ी हालत देखकर पता चल ही गया। परिणाम पिटाई तो नहीं हुई क्योंकि पहली बार ऐसा हुआ था किन्तु साइकिल चलाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
देखा ऐसी रही हमारी पहली साइकिल सवारी।

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

हमारे दादा दादी क्यों खुश थे हमसे ज्यादा :)


 यह मुझे एक मित्र से मिला ईमेल के जरिये 

 WHY OUR GREAT GRANDPARENTS WERE HAPPIER THAN WE ARE!

 
A bottle of Bayer's heroin. Between 1890 and 1910 heroin was sold as a non-addictive substitute for morphine.
It was also used to treat children with strong cough

 Coca Wine, anyone?
Metcalf Coca Wine was one of a huge variety of wines with cocaine on the market.
Everybody used to say that it would make you happy and it would also work as a medicinal treatment.
Mariani wine
Mariani wine (1875) was the most famous Coca wine of its time.
Pope Leo XIII used to carry one bottle with him all the time.
He awarded Angelo Mariani (the producer) with aVatican gold medal.
 Maltine
Produced by Maltine Manufacturing Company of New York.
It was suggested that you should take a full glass with or after every meal...
Children should take half a glass.
A paper weight:
A paper weight promoting C.F. Boehringer & Soehne (Mannheim , Germany).
They were proud of being the biggest producers in the world of products containing Quinine and Cocaine.
Opium for Asthma:
No comments.
Cocaine tablets (1900)
All stage actors, singers teachers and preachers had to have them for a maximum performance.
Great to "smooth" the voice.

Cocaine drops for toothache

Very popular for children in 1885.
Not only did they relieve the pain, they made the children happy!
Opium for new-borns
I'm sure this would make them sleep well (not only the Opium, but 46% alcohol!)
No wonder they were called The Good Old Days!!



 



सोमवार, 7 सितंबर 2009

पूड़ी वाले कक्का

गाँव हमारी संस्कृति को आज भी प्रतिबिंबितकरते हैं , जहाँ आज भी लोग एक दूसरे के सुख -दुःख में सहभागी होते हैं । हमारे गाँव में एक बुजुर्ग महाशय थे - .सबके परिवारों की पूरी ख़बर उन्हें रहती थी । वे गाँव के चलते - फिरते विश्वकोष थे । बड़े ही अधिकार के साथ वे हर घर में पहुँच कर कुछ भी खाने -पीने का आदेश देते थे ,मजाल कि कोई भी जरा सी भी ना -नुकुर कर जाए .किसी भी परिवार के किसी भी मसले पर उनकी राय सर्वोपरि होती थी ।
उनका नाम पूडी वाले कक्का क्यों पड़ा ? इसके बारे में बुजुर्ग बताते हैं कि कक्का को विविध आयोजनों में व्यवस्था करने का बहुत शौक था । गाँव में किसी के घर कैसा भी आयोजन हो – विवाह ,रामायण या अन्य धार्मिक कार्यक्रम एवं तेरहीं आदि ,भोजन बनवाने में कक्का स्वयं जिम्मेवारी सभांल लेते थे ।कहीं का भी हलवाई आये, उसे कक्का के निर्देशन में काम करना ही पड़ता था । कक्का मनोयोग से गरम -गरम करारी पूडियां सिकवाते थे ,मजाल कि कोई पूडी कच्ची रह जाए . वे ख़ुद भी कभी -कभी इन्हें बनवाने में सहयोग भी करते थे .
समय के प्रवाह में कक्का बूढे हो गए ,पर उनकी समाजसेवा में जरा भी कमी नहीं आयी । .नये ज़माने के लड़कों को कक्का का हस्तक्षेप पसंद नहीं था । पर कक्का की सामाजिक स्वीकृति के कारण वे चुप रह जाते थे ।
गाँव के पटवारी रामखिलावन के बच्चे काफी होनहार निकले थे। बड़ा बेटा विदेश में इंजीनियर था । वह अपने गाँव अपने परिवार के साथ आया था . सारा गाँव खुशी से झूम रहा था ,आख़िर रामखिलावन के नाती के मुंडन का भोज जो था । शहर के फाइव स्टार होटल का खाने का इंतजाम था ।कक्का भी अपनी चिर -परिचित शैली में खाना बनाने वालों को निर्देश देने लगे । रामखिलावन के लड़के को यह नहीं सुहाया । उसने कक्का को झिड़क कर कहा ,” कक्का शाम को खाने के समय आ ज।” कक्का ने रामखिलावन की तरफ़ देखा ’वह भी नजर चुरा कर इधर -उधर देखने लगा ।
कक्का को पहली बार अहसास हुआ कि अब जमाना बदल गया है । उन जैसों की अब कोई पूँछ नहीं रही ।वे निढाल हो कर घर लौट आये ।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

मेरे प्रारम्भिक अनुभव

दिसम्बर २००६ को मैंने अपने ब्लॉग को ब्लॉगर पर रजिस्टर कराया  था . उस समय पता नहीं था कि हिंदी में भी ब्लॉग्गिंग प्रारंभ हो गयी है. नाम जरूर हिंदी में रखा था  "संस्कृति " उस पल में न जाने कौनसा विचार था जिसने इस नाम को सामने किया . आज देखें तो हम इसी पर विचार कर रहे हैं . कुछ इसे कविता  के रूप में कोई कहानी  के रूप में  . सभी अपना योगदान कर रहे हैं छोटे बड़े रूप में अपनी अपनी तरह से .
 मेरी मुलाकात  हुई एक कांफेरंस के सिलसिले में अनिल पुसदकर से हुई  कई बार चर्चाएं हुईं . डॉ अजय सक्सेना जो माध्यम हुए इस मुलाकात  के, ने मुझे सुझाव दिया अपना ब्लॉग लिखने  के लिए . ध्यान आया मैंने एक ब्लॉग तो रजिस्टर किया था . जाकर देखा तो वह अपनी जगह था शायद मेरी राह देखते हुए :) फिर तो जो सिलसिला शुरु हुआ जारी है. अनिल ने मुझे अपने ब्लॉग के जरिये सामने रखा ब्लॉगजगत के http://anilpusadkar.blogspot.com/2009/04/blog-post_05.html  नए दूर और पास के लोगों से जानकारी मिलने और सम्पर्क करने का . कुछ मौके ऐसे भी आ गए जिनमे तल्खी का सामना  करना पड़ा लेकिन जीवन है और उसके सतरंग. कल मुझे आमंत्रण मिला पहला अहसास से जुड़ने का, धन्यवाद इस नयी शुरुआत से जुड़ने का .

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

सहयोग के लिए एक विनम्र अपील


सदस्यों और अन्य सुधीजनों से एक विनम्र निवेदन
आप इस ब्लाग के संचालन में अपना योगदान सहर्ष देने को तैयार हुए, यह हमारे लिए हर्ष का विषय है। आप सबसे इस ब्लाग पर रचनाओं के प्रकाशन के सम्बन्ध में मात्र इतना निवेदन करना है कि रचनायें ब्लाग की प्रकृति के अनुरूप हों तो ब्लाग की सार्थकता साबित होगी।
ब्लाग पर कविता, कहानी, गजल आदि को प्रकाशित न करें। जो साथी इसके सदस्य नहीं हैं वे प्रकाशन हेतु कविता, कहानी, गजल आदि रचनाओं को कृपया न भेजें, इन्हें इस ब्लाग पर प्रकाशित कर पाना सम्भव नहीं हो सकेगा।
पहला एहसास इस उद्देश्य से बनाया गया है कि हम सभी अपने साथ पहली बार घटी हुई घटनाओं, बातों, अनुभवों आदि की खट्टी मीठी यादों का मिलकर आनन्द उठा सकें। ऐसे में हम सभी की आपस में यही अपेक्षा होती है कि इस ब्लाग पर हमें अपने साथ घटी किसी पहली स्थिति का एहसास जानने का अवसर प्राप्त होगा। ऐसा न हो पाने पर अभी नहीं तो भविष्य में आपका यह ब्लाग अपनी सार्थकता खो देगा। हमारा विचार है कि आप लोग ऐसा नहीं चाहेंगे।
अतः आप सदस्यगण और अन्य सुधी साथीजन अपनी अन्य रचनाओं को यदि प्रकाशित करवाना चाहते हैं तो उसे शब्दकार पर प्रकाशित करें अथवा शब्दकार के लिए प्रेषित करें। शब्दकार भी आपका अपना ब्लाग है।
आशा है कि आप सभी का सहयोग पूर्ववत प्राप्त होता रहेगा।

यादों के झरोखे से -अतुकांत गीत ---डॉ.श्याम गुप्त

यादों के झरोखे से -
जब तुम मुस्कुराती हो ,
मन में इक नई उमंग ,
नयी कांति बनकर आती हो।

उस साल तुम अपनी ,
नानी के यहाँ आई थीं ;
सारे मकान में ,इक-
नई रोशनी सी लाई थीं।

वो घना सा रूप,
वो घनी केश-राशि;
हर बात में घने-घने,
कहने की अभिलाषी।

उसके बाग़ की ,बगीचों की,
फूल-पत्ती नगीनों की;
हर बात थी घनेरी-घनेरी,
जैसे आदत हो हसीनों की।

गरमी की छुट्टी में -
मैं आऊँगी फ़िर;
चलते -चलते तुमने ,
कहा था होके अधीर।

अब वो गरमी आती है,
वो गरमी की छुट्टी;
शायद करली है तुमने,
मेरे से पूरी कुट्टी॥

गीतिका: आचार्य संजीव 'सलिल'

शब्द-शब्द से छंद बना तू।
श्वास-श्वास आनंद बना तू॥

सूर्य प्रखर बन जल जाएगा,
पगले! शीतल चंद बना तू॥

कृष्ण बाद में पैदा होंगे,
पहले जसुदा-नन्द बना तू॥

खुलना अपनों में, गैरों में
ख़ुद को दुर्गम बंद बना तू॥

'सलिल' ठग रहे हैं अपने ही,
मन को मूरख मंद बना तू॥

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बुधवार, 2 सितंबर 2009

बहुत डरते डरते बना ब्लॉग और लिखी पोस्ट


पहली बार की घटनाओं का एक मीठा सा एहसास सभी को हो यही सोच कर इस ब्लाग को प्रारम्भ किया है। अब चूँकि बात ब्लाग की हो रही है तो सोचा कि क्यों न अपने पहली बार ब्लाग पर आने के बारे में आप लोगों से बात की जाये।
घर पर इंटरनेट कनेक्शन लिए लगभग पाँच माह होने को आ गये थे। अपने काम की कुछ साइट पर घूमने के साथ साथ ऐसी साइट भी देखा करते थे जिन पर अपने लेख, कविता, कहानी आदि को भेज कर प्रकाशित करवा सकें।
किसी भी लेखक के लिए छपास रोग बहुत ही विकट रोग है। हमारे ख्याल से वे दिन तो हवा हो गये जब लोग स्वान्तः सुखाय के लिए लिखा करते थे। अब तो छपास रोग के कारण लिखना पड़ता है। यही छपास रोग हममें भी था पर शायद इसकी बहुत हद तक पूर्ति इस रूप में हो चुकी थी कि माँ सरस्वती, अपनी लेखनी और बड़ों के आशीर्वाद से उस समय से ही छपना शुरू हो गये थे जब हमें बच्चा कहा जाता था। उम्र रही होगी कोई नौ वर्ष की। तबसे कागज पर तो छपते रहे।
अब घर में इंटरनेट और लेखन भी होता हो तो छपास का कीड़ा दूसरे रूप में कुलबुलाया। बहुत खोजबीन की पर समझ नहीं आया कि इंटरनेट पर इस रोग का निदान कैसे हो? खोजी प्रवृति ने हिन्दी खोज के दौरान यह तो दिखाया कि बहुत से लोग हिन्दी में अपने मन का विषय लिखते दिख रहे हैं पर कैसे यह समझ से परे था?
एक दिन टीवी पर एक कार्यक्रम आ रहा था जिस पर चर्चा हो रही थी ब्लाग से स्म्बन्धित। बस दिमाग ने क्लिक से इस शब्द को पकड़ा। इससे पहले अमिताभ बच्चन के ब्लाग की बातें सुनते रहते थे बिगअड्डा पर जाकर पंजीकरण न करवाया। अब ब्लाग की बातें सुनी जो बनाने को लगकर तो नहीं पर सेलीब्रिटी को लेकर हो रहीं थीं।
तुरन्त कम्प्यूटर आन किया, गूगल पर जाकर सर्च किया Create Blog। अब एक दो हों तो समझ में भी आये, वहाँ तो ढेरों साइट। न समझ आये कि इसमें बनाना है, न समझ में आये कि उसमें बनाना है। इसके अलावा डर कि कहीं हमें पेमेंट न करना पड़े? हालांकि मालूम था कि आज की दुनिया में कोई चीज बिना पेमेंट के नहीं मिलती है, यदि कहीं पेमेंट के लिए क्रेडिट कार्ड वगैरह का नम्बर माँगा तो साइट बंद कर देंगे।
चक्कर था मुफत का तो फिर सर्च किया Create Free Blog। अब भी वही समस्या कहाँ जायें? दिमाग पर जोर डाल कर देखा तो बहुत सी साइट के एड्रेस पर या तो ब्लागपोस्ट लिखा मिला या फिर वर्डप्रैस। बस हिम्मत करके ब्लागर पर गये और ब्लाग बना डाला। इसके बाद भी वही ठेंठ भारतीय अंदाज कि मुफत में मिले तो दो दे दो। हमने वर्डप्रेस पर भी ब्लाग बना दिया।
अब दोनों जगह ब्लाग बन गये पर पोस्ट कहीं नहीं किया। दोनों जगह जाकर देखा पर हिम्मत नहीं हुई कुछ भी पोस्ट करने की। सोचा कहीं पोस्ट करने के बाद कोई पंजीकरण की कोई शर्त न हो, आज के जैसी किसी स्टार के निशान के नीचे छिपी हुई।
इतने के बाद अपने एक मित्र को फोन किया, अपने भाई को फोन किया। पूरी तरह से आश्वस्ति के बाद हमने अपनी पहली पोस्ट लिखी। अब यह भी समस्या थी कि इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ेंगे कैसे?
अब यह समस्या कैसे सुलझी यह बाद में क्योंकि यह भी कुछ न कुछ पहली बार करने जैसा ही मजेदार था।

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

पहला एहसास - आमंत्रण ब्लॉग से जुड़ने का



जीवन में कुछ बातें ऐसी होतीं हैं जिनको भूल पाना किसी भी रूप में सम्भव नहीं हो पाता है। इसी तरह से आपके साथ पहली बार घटित हुआ कुछ अच्छा कुछ बुरा भी ऐसा होता है जिसे हम चाह कर भी भुला नहीं पाते।
इन बीते दिनों, बीत लम्हों के साथ हम अपने जीवन को आगे बढ़ाते रहते हैं। ऐसी ही खट्टी मीठी बातों को आपस में बाँटने, गुदगुदाने, हँसाने, बीते दिनों की याद में मीठे आँसू नयनों से छलकाने को हम आप सबके सहयोग से यहाँ आ गये हैं।
पहला एहसास इसी बात का द्योतक है कि आप अपनी बातों के साथ अकेले नहीं हमें भी लेकर चलना चाहते हैं। तो आप जुड़िये हमारे साथ और बाँटिये वा पल जो आपके हैं पर अब आपके साथ हमारे भी होना चाहते हैं।
इसके दो तरीके हैं। आप इस ब्लाग के सदस्य बन कर सीधे तौर पर अपनी बातें हमसे कहें या फिर हमें मेल कर दें, हम आपकी बातों को समय समय पर पोस्ट करते रहेंगे।
सदस्य बनने के लिए आप बस हमें निम्न ई मेल पतों पर किसी एक पर या दोनों पर मेल कर दें और अपना नाम, पता, फोन, ब्लाग, मेल आदि भेज दें। हम तुरन्त आपको आपका आमंत्रण लिंक भेज देंगे।
आइये हमें भी अपनी यादों के साथ जोड़िये और अपने पहले एहसास से हम सभी को भी सराबोर करें।
सहयोग की आकांक्षा सहित
डा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
e-mail - shabdkar@gmail.com
e-mail - dr.kumarendra@gmail.com