आजकल जनगणना चल रही है और इसमें जातिगत गणना को लेकर विवाद भी रहा, शोर-शराबा भी हुआ। इधर देखने में आया है कि समाज में जातिगत-विभेद को लेकर काफी कुछ लिखा-सुना जाता रहा है। हमारा मानना है कि इस समय के व्यावसायिकता भरे दौर में जातिगत भेद की जगह पर अमीर-गरीब का भेद ज्यादा दृष्टिगोचर हो रहा है। बहरहाल इस मुद्दे पर अपने ब्लॉग पर........यहाँ एक एहसास जो जाति को लेकर हमें आज से लगभग 12 साल पहले हुआ था।
हमें अपने एक मित्र के साथ किसी काम से इलाहाबाद-बनारस आदि की यात्रा पर जाना पड़ा। शायद सन् 1999 की बात होगी, गर्मियों के दिन थे, शायद जून का महीना था। सफर के दौरान यदि ज्यादा समय यात्रा में लगना होता है तो घर से अम्मा भोजन साथ में बाँध दिया करती हैं। आज भी उनकी यही आदत है और इस आदत को हमने भी अपनी आदत बना लिया है। बाहर का कुछ खाने से बेहतर है कि घर का ही कुछ खाया जाये, इसी सोच से हम आज भी घर से कुछ न कुछ खाद्य सामग्री लेकर अपने साथ चलते हैं।
उस दिन उरई से ट्रेन सुबह लगभग 9 बजे के आसपास थी। हम और हमारा दोस्त हल्का-फुल्का सा पेट में डालकर स्टेशन पहुँचे और अपने समय पर ट्रेन के आने पर अपनी मंजिल को चल पड़े। रास्ते में दोपहर में भोजन का समय होने पर हमने घर से अपने साथ लेकर चले पूड़ी-सब्जी आदि का स्वाद लिया और अपनी भूख मिटाई। चूँकि अम्मा का लाड़-दुलार और उनकी निगाह में घर से बहुत दूर जाने की बात, सो पूड़ियाँ और सब्जी कुछ ज्यादा सी साथ में की दी गई।
हम दोनों लोगों ने अपने पेट और भूख के हिसाब से जितना भोजन पर्याप्त हो सकता था उतना किया और शेष को बापस डब्बे में रख दिया। सफर के दौरान हमारी एक आदत हमेशा रही है कि खाने का सामान थोड़ा-बहुत बचा ही लेते हैं और किसी भीख माँगने वाले बच्चे, वृद्ध को अथवा ट्रेन-बस में सफाई करने वाले बच्चे को दे देते हैं। भोजन कुछ ज्यादा होने के कारण और कुछ अपनी आदत के अनुसार बचा गया अथवा बचा लिया। चूँकि दिन गर्मियों के थे इस कारण सब्जी के खराब होने के डर से उसे नहीं बचाया।
उरई से चलकर हम इलाहाबाद तक आ गये और इसे इत्तेफाक कहिए कि पूरे सफर के दौरान कोई माँगने वाला अथवा सफाई करने वाला नहीं आया। दिमाग में डब्बे में रखी पूड़ियाँ और आम का आचार घूम रहा था। माहौल भी ऐसा है कि किसी को अपने आप कुछ भी खिलाने-देने का संकट मोल भी नहीं ले सकते थे।
हमारा दोस्त भी हमारी तरह की प्रवृत्ति का है सो वह भी भोजन के सही उपयोग का स्थान खोज रहा था। इलाहाबाद स्टेशन पर उतरे तो सोचा कि कोई व्यक्ति तो मिला नहीं जानवर ही मिल जाये तो उसको ही खिलाकर पूड़ियों को सही ठिकाने लगा दिया जाये। ट्रेन से उतरकर अभी मुश्किल से 20-25 कदम चले होंगे कि एक बुढ़िया वहीं प्लेटफॉर्म पर भीख माँगते दिखी। हम दोनों मित्रों ने एक दूसरे को देखा और लगा कि चलो अब किसी का भला हो जायेगा। हम दोनों उस बुढ़िया के पास पहुँचे और उससे पूछा कि अम्मा कुछ पूड़ियाँ और आम का अचार बचा है खाओगी?
उसके हाँ कहते ही हमने अपने बैग से डिब्बा निकाला और उस बुढ़िया को देने के लिए आगे बढ़ाया। उसने डिब्बा लेने के लिए अपना हाथ तो बढ़ाया नहीं वरन् एक सवाल उछाल दिया, जिसे सुनकर हम दोनों मित्रों के पैरों के नीचे से जमीन सरकने का एहसास हुआ। उस बुढ़िया ने डिब्बे को लेने का कोई जतन सा भी किये बगैर पहले पूछा कि बेटा कौन जात के हो?
गुस्सा तो बहुत आई किन्तु उस बुढ़िया से क्या कहते। इसी गुस्से में उस बुढ़िया से यह कहकर कि अम्मा तुम फिर न लेओ हमाईं पूड़ियाँ, काये से के हम दोउ जने अछूत हैं, आगे बढ़ गये।
लगा कि देश में जातिगत विभेद की भावना किस कदर घर किये है कि एक भीख माँगने वाली बुढ़िया भी जाति पूछ कर भोजन लेती है। स्टेशन से बाहर आकर उन पूड़ियों को एक गाय और एक कुत्ते के बीच बाँट दिया जो बिना जाति पूछे अपनी भूख मिटाने लगे।
15 टिप्पणियाँ:
रस्सी का बल है जाते जाते ही जाएगा...शायद कुछ सदियां और लगें
आईये जानें .... क्या हम मन के गुलाम हैं!
गांव में एक कहावत भी है .. जातो गंवाया स्वादो न पाया !!
ये भी खूब रही....मांगने वाले भी जात देख कर भीख लेते हैं ... पहली बार जाना है..
कोई शारीरिक रोग हो तो ठीक हो भी जाए.. ये तोजनम जन्मान्तर के मानसिक रोग हैं चाचा जी कहाँ इतनी आसानी से ठीक होने लगे..
दु:खद....आपने विषय के स्पर्श किया .......साधुवाद।
जातिवादी धारा के उद्गगम को खोजने और उस पर
प्रहार किए जाने की आवश्यकता है। सतही प्रयास से यह जटिल रोग जाने वाला नहीं।
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"एक गुलामी तन की है।
एक गुलामी धन की है॥
इन दोनों से जटिल गुलामी-
बंधे हुए चिंतन की है॥"
सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी
प्रशंसनीय संस्मरण ।
बढ़िया पोस्ट.....
मानसिक रोग इतनी आसानी से ठीक नहीं होते....
आज भी जाति बाद से छुटकारा नहीं मिल पाया है |
समाज की प्रगति में बाधक इस समस्या का कोई हाल अब तक नहीं मिल पाया है |अपने सही लिखा है |
आशा
बढ़िया पोस्ट.....साधुवाद।
ek dukhad saty hai
बरसों पहले ठीक ऐसा ही किस्सा , हमारे मामाजी के साथ घटित हुआ था ।
indeed a wnderful post :)
http://liberalflorence.blogspot.com/
सार्थक पोस्ट
"लगा कि देश में जातिगत विभेद की भावना किस कदर घर किये है कि एक भीख माँगने वाली बुढ़िया भी जाति पूछ कर भोजन लेती है।"
जाति कहां खत्म हुई। जाति को जानेंगे, समझेंगे, तभी इससे निजात पाने के रास्ते निकलेंगे। इससे बचते पिरेंगे तो हो लिया जाति-निवारण!
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