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मंगलवार, 24 अगस्त 2010
भाई-बहिन के पवित्र प्रेम का पर्व -- रक्षाबंधन
प्रस्तुतकर्ता राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर पर 8:15 am 2 टिप्पणियाँ
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शुभकामनायें
शनिवार, 12 जून 2010
भीख लेने से पहले सवाल दागा - कौन जात के हो?
हमें अपने एक मित्र के साथ किसी काम से इलाहाबाद-बनारस आदि की यात्रा पर जाना पड़ा। शायद सन् 1999 की बात होगी, गर्मियों के दिन थे, शायद जून का महीना था। सफर के दौरान यदि ज्यादा समय यात्रा में लगना होता है तो घर से अम्मा भोजन साथ में बाँध दिया करती हैं। आज भी उनकी यही आदत है और इस आदत को हमने भी अपनी आदत बना लिया है। बाहर का कुछ खाने से बेहतर है कि घर का ही कुछ खाया जाये, इसी सोच से हम आज भी घर से कुछ न कुछ खाद्य सामग्री लेकर अपने साथ चलते हैं।
उस दिन उरई से ट्रेन सुबह लगभग 9 बजे के आसपास थी। हम और हमारा दोस्त हल्का-फुल्का सा पेट में डालकर स्टेशन पहुँचे और अपने समय पर ट्रेन के आने पर अपनी मंजिल को चल पड़े। रास्ते में दोपहर में भोजन का समय होने पर हमने घर से अपने साथ लेकर चले पूड़ी-सब्जी आदि का स्वाद लिया और अपनी भूख मिटाई। चूँकि अम्मा का लाड़-दुलार और उनकी निगाह में घर से बहुत दूर जाने की बात, सो पूड़ियाँ और सब्जी कुछ ज्यादा सी साथ में की दी गई।
हम दोनों लोगों ने अपने पेट और भूख के हिसाब से जितना भोजन पर्याप्त हो सकता था उतना किया और शेष को बापस डब्बे में रख दिया। सफर के दौरान हमारी एक आदत हमेशा रही है कि खाने का सामान थोड़ा-बहुत बचा ही लेते हैं और किसी भीख माँगने वाले बच्चे, वृद्ध को अथवा ट्रेन-बस में सफाई करने वाले बच्चे को दे देते हैं। भोजन कुछ ज्यादा होने के कारण और कुछ अपनी आदत के अनुसार बचा गया अथवा बचा लिया। चूँकि दिन गर्मियों के थे इस कारण सब्जी के खराब होने के डर से उसे नहीं बचाया।
उरई से चलकर हम इलाहाबाद तक आ गये और इसे इत्तेफाक कहिए कि पूरे सफर के दौरान कोई माँगने वाला अथवा सफाई करने वाला नहीं आया। दिमाग में डब्बे में रखी पूड़ियाँ और आम का आचार घूम रहा था। माहौल भी ऐसा है कि किसी को अपने आप कुछ भी खिलाने-देने का संकट मोल भी नहीं ले सकते थे।
हमारा दोस्त भी हमारी तरह की प्रवृत्ति का है सो वह भी भोजन के सही उपयोग का स्थान खोज रहा था। इलाहाबाद स्टेशन पर उतरे तो सोचा कि कोई व्यक्ति तो मिला नहीं जानवर ही मिल जाये तो उसको ही खिलाकर पूड़ियों को सही ठिकाने लगा दिया जाये। ट्रेन से उतरकर अभी मुश्किल से 20-25 कदम चले होंगे कि एक बुढ़िया वहीं प्लेटफॉर्म पर भीख माँगते दिखी। हम दोनों मित्रों ने एक दूसरे को देखा और लगा कि चलो अब किसी का भला हो जायेगा। हम दोनों उस बुढ़िया के पास पहुँचे और उससे पूछा कि अम्मा कुछ पूड़ियाँ और आम का अचार बचा है खाओगी?
उसके हाँ कहते ही हमने अपने बैग से डिब्बा निकाला और उस बुढ़िया को देने के लिए आगे बढ़ाया। उसने डिब्बा लेने के लिए अपना हाथ तो बढ़ाया नहीं वरन् एक सवाल उछाल दिया, जिसे सुनकर हम दोनों मित्रों के पैरों के नीचे से जमीन सरकने का एहसास हुआ। उस बुढ़िया ने डिब्बे को लेने का कोई जतन सा भी किये बगैर पहले पूछा कि बेटा कौन जात के हो?
गुस्सा तो बहुत आई किन्तु उस बुढ़िया से क्या कहते। इसी गुस्से में उस बुढ़िया से यह कहकर कि अम्मा तुम फिर न लेओ हमाईं पूड़ियाँ, काये से के हम दोउ जने अछूत हैं, आगे बढ़ गये।
लगा कि देश में जातिगत विभेद की भावना किस कदर घर किये है कि एक भीख माँगने वाली बुढ़िया भी जाति पूछ कर भोजन लेती है। स्टेशन से बाहर आकर उन पूड़ियों को एक गाय और एक कुत्ते के बीच बाँट दिया जो बिना जाति पूछे अपनी भूख मिटाने लगे।
प्रस्तुतकर्ता राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर पर 9:42 pm 15 टिप्पणियाँ
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जाति विभेद
मंगलवार, 25 मई 2010
केले के छिलके खाने को बेबस नौनिहाल देश के
भूख में आदमी को दम तोड़ते भी सुना है, किसी भी स्थिति तक गिरते देखा है, चोरी करते सुना है, अपना जिस्म बेचते भी सुना है। भूख और गरीबी की विकट स्थिति से लड़ने-जूझने की, जिन्दा रहने की मारामारी में कुछ भी कर गुजरने के लिए उठाये गये कदमों में प्रसिद्ध साहित्यकार शैलेश मटियानी के बारे में पढ़ रखा है कि वे किसी न किसी बहाने से पुलिस की पकड़ में आने की कोशिश करते थे। इससे उनके खाने और रहने की समस्या कुछ हद तक निपट जाया करती थी।
यह एक दशा है जो हमने पढ़ रखी है। कुछ इसी तरह की दशा से हमें रूबरू होने का कुअवसर उस समय मिला जब हम अपनी स्नातक की पढ़ाई के लिए सन् 1990 में ग्वालियर गये। हमारा रहना हॉस्टल में होता था और ग्वालियर में ही हमारे एक चाचाजी के रहने के कारण सप्ताह में एक बार उनके घर भी हो आते थे।
उरई जैसे छोटे से शहर से निकल कर ग्वालियर जैसे शहर में आने पर घूमने का अपना अलग ही मजा आता था। इसी कारण से चाचा के घर पर हमेशा रास्ते बदल-बदल कर जाया करते थे। एक दिन अपनी यात्रा के दौरान हमने रेलवे स्टेशन की ओर से जाने का फैसला किया। रेलवे स्टेशन के पास के ओवरब्रिज से चढ़ते हुए रेलवे स्टेशन का नजारा और सामने खड़े किले का दृश्य बहुत ही मजेदार लगता था। यह दृश्य अब ओझल हो चुका है क्योंकि अब दोनों ओर बड़ी-बड़ी इमारतों ने अपना स्थान जमा लिया है।
उस दिन जैसे ही ओवरब्रिज पर चढ़ने के लिए अपनी साइकिल को मोड़ा तो उसी मोड़ पर लगे कूड़े के ढ़ेर में एक बारह-तेरह साल का लड़का बैठा दिखा। ऐसे दृश्य अमूमन हमेशा ही किसी न किसी कूड़े के ढ़ेर पर दिखाई देते थे कि छोटे-छोटे लड़के-लड़कियाँ कुछ न कुछ बीनते नजर आते थे। उस दिन भी कुछ ऐसा ही लगा किन्तु ऐसा नहीं था। वह लड़का बजाय कूड़ा-करकट बीनने के कुछ और ही करता नजर आया।
एक पल को झटका सा लगा, वह लड़का कूड़े के ढेर में पड़े केले के छिलकों को खा रहा था। दिमाग को झटका दिया और अपनी साइकिल की रफ्तार बढ़ाने के लिए पैडल पर जोर लगाया। मुश्किल से तीन या चार कदम ही साइकिल चल पाई होगी कि मन में उथल-पुथल मचने लगी। ब्रेक लगाये और वहीं खड़े हो गये अब न तो समझ में आये कि आगे बढ़ें या फिर इस लड़के के लिए कुछ करें।
अगले ही पल एक विचार किया और साइकिल को घुमा कर उस लड़के के पास खड़ा कर दिया। क्यों क्या कर रहे हो? की आवाज सुनकर उस लड़के के हाथ से केले का छिलका छूट गया, उसको लगा कि कहीं यह भी अपराध न कर रहा हो। उसके मुँह से कोई आवाज नहीं निकली, बस वह चुपचाप खड़ा हो गया।
हमने उससे खाना खाने के लिए पूछा तो उसने सिर हाँ की स्थिति में हिला दिया। उसको अपने साथ लेकर स्टेशन की बाहर ही तरफ बने होटलों की ओर ले गया। अब समस्या यह आनी थी कि उसको होटल में बिठाकर तो खिलाने को कोई भी तैयार नहीं होता। एक होटल में सोलह रुपये में एक थाली भोजन की मिलती थी। उससे एक थाली देने को कहा तो उसने बाहर देने से मनाकर दिया। इधर-उधर निगाह दौड़ा कर कुछ समाचार-पत्र और कुछ पॉलीथीन इकट्ठा किये और उस भूखे बच्चे के लिए भोजन प्राप्त किया।
तब से लेकर आज तक बहुत सी अच्छी बुरी घटनाओं को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से देखा-सुना है किन्तु आज भी वह घटना दिमाग से निकाले नहीं निकलती है। तब से लेकर आज तक एक नियम सा बना लिया है कि कभी भी माँगने वालों को, स्टेशन पर, ट्रेन में भीख माँगने वाले को, कूड़ा बीनने वाले बच्चों को कुछ रुपये देने की बजाय उनको खाना खिला देते हैं।
प्रस्तुतकर्ता राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर पर 11:00 pm 5 टिप्पणियाँ
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बेबस बच्चा,
सहयोग
बुधवार, 21 अप्रैल 2010
पानी...आटा....पानी....आटा....हो गया बेड़ागर्क
गरमी के कारण या फिर किसी और कारण से अम्मा जी की तबियत कुछ बिगड़ सी गई। अपनी क्षमता के अनुसार उन्होंने उस दशा में भी हम तीनों भाइयों का और घर का सारा काम सम्पन्न किया। लगातार काम करते रहने और कम से कम आराम करने के कारण अम्मा की तबियत ज्यादा ही खराब हो गई।
अम्मा तो पड़ गईं बिस्तर पर और मुसीबत आ गई हम भाइयों की। खाने की समस्या, सुबह नाश्ते की दिक्कत। पड़ोस हम लोगों को बहुत ही अच्छा मिला हुआ था इस कारण समस्या अपना भयावह स्वरूप नहीं दिखा पाती थी। बगल के घर की दीदी आकर मदद करतीं और हम तीनों भाई दौड़-दौड़ कर उनका हाथ बँटाते रहते।
दो-तीन दिनों के बाद एक शाम हमने अम्मा से कहा कि आज हम आटा गूँथते हैं। अम्मा ने मना किया कि अभी तुमसे ऐसा हो नहीं पायेगा पर हमने भी ऐसा करने की ठान ली। अपने नियत समय पर दीदी को भी आना था तो यह भी पता था कि उनके आते ही हमारा यह विचार खटाई में पड़ जायेगा। हमने अपने कार्य को करने के लिए पूरा मन बना लिया था।
इससे पहले कभी भी आटा गूँथा नहीं था सो मन में कुछ ज्यादा ही उत्साह था। यह भी विचार आ रहा था कि हम अम्मा का एक काम तो कर ही सकते हैं। अम्मा आँगन में चारपाई पर लेटीं थीं और हम जमीन पर आटा, परात, पानी का जग लेकर बैठ गये। अम्मा ने जितना बताया उतना आटा परात में डालकर उसमें पानी मिलाया।
अब शुरू हुई हमारी आटा कहानी, पानी डरते-डरते डाला तो कम तो होना ही था। अम्मा के निर्देश पर थोड़ा सा और पानी डालकर गूँथना शुरू किया। आटे का स्वरूप कुछ-कुछ सही आने लगा पर अभी पानी की कमी लग रही थी। अम्मा के कहे फिर पानी डाला और हाथ चलाने शुरू किये।
अब लगा कि पानी कुछ ज्यादा हो गया है। जब पानी ज्यादा हुआ तो थोड़ा सा आटा मिला दिया। हाथ चलाये तो लगा कि आटा ज्यादा है, फिर पानी की धार............।
ऐसा तीन बार करना पड़ गया। आटा, पानी....पानी, आटा होते-होते आटा अन्ततः गुँथ तो गया किन्तु बजाय हम चार-पाँच लोगों के कम से कम आठ-नौ लोगों के लिए काफी हो गया। अब क्या हो? याद आये फिर भले पड़ोसी।
दीदी को आवाज दी, जितना आटा हम लोगों के काम आ सकता था उतना तो निकाला शेष दीदी के हवाले कर दिया। दीदी ने मुस्कुराते हुए शाबासी भी दी और अम्मा ने भी हौसला बढ़ाया।
इसका परिणाम यह निकला कि एक-दो दिन की आटा-वृद्धि के बाद हमने आटा भली-भाँति गूँथना सीख लिया। इस सीख का सुखद फल हमें तब मिला जब हम पढ़ने के लिए ग्वालियर साइंस कॉलेज के हॉस्टल में रहे। मैस के लगातार बन्द रहने के कारण पेट भरने में इस आटा-कहानी ने बड़ी मदद की।
प्रस्तुतकर्ता राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर पर 11:54 pm 7 टिप्पणियाँ
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खाना बनाना,
घर के काम
रविवार, 18 अप्रैल 2010
बंदरों से चिथने का पहला अहसास..------------------>>>दीपक 'मशाल'
ये तो सच है कि अपने जीवन का पहला अहसास कोई बड़ी मुश्किल से ही भूल सकता है. अब वह अहसास अच्छा है या बुरा उसका फर्क इतना पड़ता है कि बुरे अहसासों को लोग बहुत कम भूल पाते हैं. इंसानी फितरत ही ऐसी है.. देखिये ना हमारे साथ किये गए अहसान हम भूल सकते हैं लेकिन कोई अगर हमारा कुछ बिगाड़ दे या हमारे साथ जाने-अनजाने में कुछ बुरा कर दे तो मजाल कि हम आसानी से उसे भुला दें.
हाँ तो यहाँ आज एकबार फिर अपने जीवन के एक और पहले अहसास का जिक्र करने जा रहा हूँ.. और वो अहसास जुड़ा हुआ है मेरे खुद के साथ घटी पहली दुर्घटना से. आमतौर पर दुर्घटना शब्द बोलने पर मस्तिष्क के ७२ इंच के श्वेत परदे पर जो चित्र प्रक्षेपित होता है वो सड़क हादसे से जुड़ा ही लगता है या फिर उसमे किसी मशीन का कहीं ना कहीं कोई ना कोई योगदान प्रतीत होता है. लेकिन दुर्घटना सिर्फ सड़क या मशीन से जुड़ी ही नहीं होतीं कई बार आप अपने आप घर बैठे दुर्घटनाओं को निमंत्रण पत्र थमा देते हैं, जैसा कि मैंने किया देखिये कैसे-
अब मेरे दोनों हाथों में एक में रसगुल्ले और एक में समोसे.. मैं आगे-आगे चल दिया. हाँ तो बताना जरूरी है कि उनका घर ऐसा बना हुआ था कि मुख्य द्वार से अन्दर जाकर एक काफी लम्बी गैलरी फिर आँगन फिर सीढियां और फिर छत और उसके बाद वो कमरे जहाँ पर उसका घर था. हमारे यहाँ बंदरों की बहुतायत है इसलिए रोज ही उनसे मुठभेड़ होती रहती है और जब कभी छत पर गेंहू या धान वगैरह सूखने के लिए डालते तो फिर इन वानर श्रेष्ठों की कभी-कभी छतों पर पार्टी भी हो जाया करती थी. तो दुर्भाग्यवश उस दिन उनकी छत पर गेंहूं सूख रहा था और मैं उस बालक का नेतृत्व करते हुए जब छत पर पहुंचा तो देखा कि करीब १०-११ बन्दर छत पर कच्चे गेंहू का आनंद ले रहे हैं. वो बच्चा तो बन्दर देखते ही चुपचाप सीढ़ियों से नीचे उतर लिया और मैं जब तक पलटता कि किसी शातिर बन्दर ने मेरे हाथ के रसगुल्लों पर नीयत ख़राब कर दी. खुद तो ठीक बाकी सब बंदरों को भी 'खों-खों' कर पार्टी का माल उड़ाने का इशारा कर दिया.
बस फिर क्या था घेर लिया गया मुझे. मैं भी कुछ ज्यादा ही अक्लमंद निकला और ये सोच लिया कि भाई इन्हें दे दिए तो और रसगुल्ले कहाँ से लाऊंगा? बस फिर क्या था चुपचाप वहीँ बैठ गया और उनके आक्रमण झेलता रहा. अब एक धरमेंदर और १०-११ अमरीश पुरी तो कब तक बचता भाई.. जब लगा कि उनके दाँत और नाखून शरीर में कई जगह तो लगे ही लेकिन सिर में कुछ ज्यादा ही गड़ चुके हैं और अब ज्यादा देर की तो मीठे सीरे के बजाय इन्हें मेरे शरीर में बहता लाल सीरा पसंद आ जायेगा और वैसे भी हाथ में जो प्लेट थीं वो दर्द के कारण कब मुट्ठी में भींच गयीं पता भी ना चला, तो दोबारा अकल लगाई कि भाई अब छोड़ दे ये सने हुए रसगुल्ले अब कोई ना खायेगा.
उधर वो बालक नीचे जाके चुपचाप खड़ा रहा और किसी को इत्तला भी नहीं किया कि मेरे साथ क्या ज़ुल्म हो गया. :) मैं कुछ इस उम्मीद में था कि वो किसी को बताएगा तो मेरे रक्षक कोई देव आयेंगे, पर ऐसा कुछ ना हुआ अंततः जब मैंने रसगुल्ले और समोसे वहीँ फेंक दिए तो सारे लफंगे बन्दर मुझपर जोर-आज़माइश छोड़ उनका इंटरव्यू लेने के लिए मुखातिब हुए और मैं नीचे उतर कर आँगन, गलियारा पार करता हुआ बाहर चबूतरे पर जाकर खड़ा हो गया.
अब चूंकि मेरा घर सड़क पार करते ही सामने ही था तो मेरी मम्मी ने छत से मुझे देख लिया. तब तक मेरी स्कूल की सफ़ेद शर्ट मुफ्त में पूरी सुर्ख हो चुकी थी. मम्मी तो देखते ही गश खा कर गिर गयीं और जब वो गिरीं तो बाकी लोगों कि नज़र भी मुझ पर इनायत हुई कि मम्मी क्या देख कर मूर्छित हो गयीं. जब तक लोग आये तो दर्द और रक्तस्राव के कारण ग्लेडिएटर दीपक जी बेहोश होने की हालात में पहुँच गए थे.
बस आनन-फानन में ताऊ जी के क्लिनिक में पहुँचाया गया, फिर क्या हुआ ज्यादा याद नहीं हाँ बस इतना याद है कि मुझे चेतन रखने के लिए डॉक्टर ताऊ अपने बेटे से कह रहे थे कि- 'देखो कितना बहादुर बच्चा है १० बंदरों से लड़ा और ७ टाँके सर में लगवाए तब भी नहीं रोया और एक तुम हो जो एक इंजेक्शन में रोते हो'. अब तारीफ सुन मैं भी खुद को पहलवान समझने लगा था जबकि भाई हकीकत में तो बंदरों से लड़ा नहीं बल्कि चिथा था. :) ''
तो कैसी लगी ये राम ऊप्स दीपक कहानी?? यानि बंदरों से चिथने का पहला अहसास.. वैसे आखिरी भी तो यही था क्योंकि इसके बाद बंदरों का आतंक मन से ऐसा निकला कि जब भी बन्दर देखता तो उनकी तरफ खाली हाथ ही दौड़ पड़ता और अबकी वो बेचारे भाग रहे होते मुझे देखकर..
दीपक 'मशाल'
चित्र में मेकअप राजीव तनेजा जी द्वारा किया गया
प्रस्तुतकर्ता दीपक 'मशाल' पर 6:25 am 30 टिप्पणियाँ
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दीपक 'मशाल',
बन्दर
रविवार, 11 अप्रैल 2010
बुधवार, 7 अप्रैल 2010
लोर्ड्स के साथ डेटिंग-------->>>दीपक 'मशाल'
कल लन्दन से लौट के आया हूँ कई नए अनुभवों के साथ.. कुछ बहुत अच्छे इंसानों से भी मिला जो साहित्यकार भी हैं, साथ ही उनके जीवन के तजुर्बात सुनकर 'प्यासा' फिल्म का अहसास भी जागा कि- ''ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है''
दुःख होता है कहते हुए कि इस जगत के ज्यादातर लोग सिर्फ अपने को बहुत अच्छा साबित करने के चक्कर में बहुत अच्छा करना भूल जाते हैं और बस एक लकीर पर चलते जाते हैं अपनी पलकें मूदें हुए, पर मैं किसी को सुधारना भी नहीं चाहता बस खुद ही सुधर जाऊं इतना काफी है मेरे लिए. हाँ प्रिंट मीडिया और साहित्य से जरूर जुड़ा रहूँगा.
यहाँ मैं अपने पहले अहसास के बारे में बताने जा रहा हूँ जो कि जुड़ा हुआ है मेरे किसी भी खेल प्रांगन(स्टेडियम) को देखने को लेकर..
मैंने अगर अपने जीवन में कोई पहला स्टेडियम देखा तो वो है लोर्ड्स क्रिकेट मैदान जिसे कि 'क्रिकेट का मक्का' भी कहते हैं और इसे ऊपरवाले का अहसान ही मानूंगा कि सीधा उस मैंदान को पहली बार देखने का अवसर दिया जहाँ से क्रिकेट शुरू हुआ..
सुबह १२ बजे लन्दन में उस जगह से निकला जहाँ ठहरा हुआ था, निकलते ही सबसे पहले लोर्ड्स स्टेडियम के रिसेप्शन पर फोन लगाया तो पता चला कि १२ बजे वाला ट्रिप पहले ही शुरू हो चुका है अब मैं २ बजे पहुंचूं वही बेहतर था.. तो कुछ समय इम्पीरियल कोलेज लन्दन में अपने मित्र की प्रयोगशाला में गुज़ारा उसके बाद अपने गंतव्य का रास्ता अंतर्जाल के माध्यम से पता करके वहाँ के लिए प्रस्थान किया. पेडिंगटन बस स्टॉप से बस पकड़ कर बेकर स्ट्रीट पहुंचा. वहाँ पहुँच कर पता चला कि अभी भी ४५ मिनट बाकी हैं तो पैदल ही रास्ता खोजते हुए बढ़ दिया लोर्ड्स की दिशा में, लेकिन फिर भी करीब २० मिनट पहले बारिश और तेज़ हवा को झेलता वहाँ पहुँच ही गया.
मेनगेट पर दो सेक्युरिटी गार्ड थे तो उन्होंने अन्दर जाकर टिकट लेने कि सलाह दी लेकिन चूंकि पहले से ही लन्दन पास था मेरे पास तो सीधा रिसेप्शन पर दस्तक दी और स्टीकर लेने के बाद सीधा संग्रहालय में. जहाँ गावस्कर का वो हेलमेट रखा हुआ था जो चीनी मिट्टी से बना था और अस्सी के दशक में प्रयोग किया गया था तो साथ में ही नवाब पटौदी की तस्वीर और लारा का हेलमेट था. डेनिस लिली कि ऐतिहासिक गेंद थी तो जिम लेकर की टेस्ट में १९ विकेट चटकाने वाली गेंद भी, विवियन रिचर्ड्स का हेलमेट, कोट और बल्ला भी. जेफ़ बायकोट का एक अलग ही सेक्शन बना हुआ था. हाँ सचिन से सम्बंधित कोई चीज नहीं मिली अलबत्ता गांगुली की वो टी-शर्ट जरूर थी जो उसने वहाँ फ्लिंटोफ़ को चिढ़ाने के लिए उतारी थी.
क्रिकेट का इतिहास देखा सुना कि किस तरह के बल्ले सबसे पहले १७३० में चलते थे फिर क्या रूप आया और किस तरह पहले ३ के बजाए सिर्फ २ विकेट जमा कर खेल होता था.. ना पैड थे, ना ग्लब्स, ना हेलमेट और ना ही कोई और सुरक्षा उपकरण.
सुनकर हंसी भी आई कि जब इंग्लैण्ड की टीम पहली बार आस्ट्रेलिया गई तो आस्ट्रेलिया ने इंग्लैण्ड के ११ खिलाड़ियों के मुकाबले २२ खिलाड़ी मैदान में उतारे क्योंकि उनका मानना था कि उनकी टीम बहुत कच्च्ड थी और शुरुआती अवस्था में थी(हुई ना बच्चों वाली बात).
वहीँ एक कोने में उस चिडिया की मृत देह भी उसी बॉल से चिपकी आज भी रखी है जिससे कि उसकी मौत हुई थी(एक तेज़ गेंदबाज की गेंद के रास्ते में आ जाने का खामियाजा).
एशेज की वो असली ट्रॉफी देखी जिसने इस श्रृंखला को नाम दिया और उसकी कहानी सुनी तो दूसरी ओर W G Grace की पेंटिंग और मूर्ति देखी. सर डोन ब्रेडमेन की भी पेंटिंग देखी और फिर लौंज रूम देखा जहाँ इंग्लैण्ड की टीम और भारत की टीम नाश्ता और खाना खाती हैं, फिर उनके ड्रेसिंग रूम और पविलियन और फिर वो रूम जहाँ महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए थे जैसे कि रिकी पोंटिंग को कार्बन के हेंडिल वाले बल्ले से ना खेलने देने का निर्णय.
वो बालकनी देखी जहाँ सौरव ने अपनी टी-शर्ट उतारी थी और वो जगह जहाँ सचिन और द्रविड़ बैठते हैं और जहाँ अगरकर ने लोर्ड्स में शतक बना कर अपना दमखम साबित किया.
एक बहुत ही मजेदार बात जो बताई गई वो ये थी कि W.G.Grace जो कि एक अच्छे फिजिशियन थे वो जब एक अच्छे क्रिकेटर के रूप में प्रसिद्द हो गए तो उनके खेल को देखने के लिए टिकट की कीमत १ पेंस से बढ़ाकर २ पेंस कर दी गई और तभी यह पहली बार हुआ कि किसी क्रिकेटर ने अपने खेल को देखने वालों की वजह से प्रायोजकों से पैसे की मांग की. उनका कहना था कि जब MCC उनकी वजह से पैसा कम रहा है तो उन्हें भी इसमें से हिस्सा दिया जाना चाहिए और तभी पहली बार किसी खिलाडी को उसके प्रशंसकों की वजह से पैसा मिला.
उसके बाद एक बार जब वो जल्दी आउट हो गए तो W.G.Grace महोदय सीधा अम्पायर के पास जाकर बोले कि यहाँ लोग मेरा खेल देखने आये हैं तुम्हारी अम्पायरिंग नहीं.. :)
वहाँ का प्रसिद्द प्रेसबॉक्स भी देखा और उसमे बैठने का मज़ा भी लिया. तो इस तरह पूरा हुआ मेरा पहली बार किसी स्टेडियम को देखने का सपना.
दीपक 'मशाल'
प्रस्तुतकर्ता दीपक 'मशाल' पर 5:14 am 4 टिप्पणियाँ
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दीपक 'मशाल'
सोमवार, 1 मार्च 2010
भांग खाकर भांग के नशे से बचते रहे
हास्टल में होता यह था कि मैस में रविवार को शाम की छुट्टी रहती थी और दोपहर के भोजन में पक्का खाना, सब्जी, पूड़ी, खीर, रायता, पापड़ आदि हम छात्रों को मिलता था। उस वर्ष हम कुछ छात्रों ने और हमारे दो-तीन सीनियर्स छात्रों ने विचार बनाया कि खीर में ही भाँग मिला दी जाये।
जैसा कि तय हुआ बिना अन्य किसी को बताये खीर में भाँग मिलाई गई। चूँकि हमारा सोमवार को एक प्रैक्टिकल था, इस कारण हमने खाना खाया और अपने कमरे में जाकर सो गये। इसके पीछे कारण ये था कि घर में कई बार सुन रखा था कि भाँग खाने के बाद आदमी का अपने ऊपर नियन्त्रण नहीं रह जाता। वह जो भी कार्य करता है तो उसे बस करता ही जाता है। डर ये था कि कहीं हम कुछ गलत-सलत कर बैठे और प्रैक्टिकल न दे पाये तो बहुत बुरा होगा।
बहरहाल हमने तो सोकर भाँग के मजे लिये किन्तु हमारे अन्य दूसरे साथियों ने काफी हंगामा किया। इस घटना में हमने भाँग का पूरा आनन्द तो उठा नहीं पाया था, इस कारण हमें लगता रहा कि कभी भाँग खानी है और उसका असर देखना है। इसी ताक में लगे-लगे एक साल हमारे पड़ोस के त्रिपाठी चाचा ने भाँग को मेवे, खोआ आदि के साथ तैयार किया।
हमने भी उस मिठाई का आनन्द उठाया और इस बार उसका असर देखने के लिए सोये नहीं। अबकी बार मालूम पड़ा कि भाँग का मजा कैसा होता है।
हमने भाँग खाने के बाद खूब मीठा भी खाया क्योंकि सुन रखा था कि मीठा खाने से भाँग खूब चढ़ती है। दोपहर में खाना खाकर लेटे और कुछ देर बाद ऐसा लगा कि आज हमने खाना तो खाया ही नहीं। पलंग से उठे और सोचा कि मुँह धोकर अम्मा से खाना माँगा जाये। मुँह धोते-धोते एकदम से याद आया कि कुछ देर पहले भी तो हम मुँह धो रहे थे। हमने अम्मा से पूछा तो पता चला कि हम खाना खा चुके हैं।
हम फिर बापस पलंग पर जाकर लेट गये। दिमाग इस बारे में भी सचेत था कि कहीं हमारी हरकत से कोई ये न समझे कि हम नशे में ऐसी बातें कर रहे हैं, इस कारण हम चुपचाप लेटे रहे। इसके बाद भी भाँग अपना असर तो दिखा ही रही थी। मन में कभी आता कि ऐसा हो रहा है तो कभी लगता कि नहीं ऐसा नहीं हो रहा है।
होत-होते शाम हो गई, भाँग ने भी अपना असर कम नहीं किया। शाम को हम भाई अपने दोस्तों के साथ छत पर बैडमिंटन खेलते थे, उस शाम को भी खेले। खेलते समय हमें याद ही नहीं रहता था कि कब शाट मारा, कब प्वाइंट बने किन्तु खेलते भी रहे।
अन्त में एक बात समझी कि भाँग का नशा दिमाग की सक्रियता को कम करता है किन्तु यदि अपने पर नियंत्रण है तो वह आप पर हावी नहीं हो सकता। आज भी हम लोग बैठ कर उस दिन की भाँग खाने की और भी हरकतों की चर्चा कर हँस लेते हैं।
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सभी को होली की भाँग में लिपटी शुभकामनाएँ
प्रस्तुतकर्ता राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर पर 10:43 pm 3 टिप्पणियाँ