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गुरुवार, 15 अक्टूबर 2009

पब्लिक फोन से मिलाते रहे एस0टी0डी0

आज के बच्चे पैदा होते ही फोन, मोबाइल का इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं। हमें अच्छी तरह याद है कि उस समय हम कक्षा आठ में पढ़ा करते थे। हमारे चाचा जी उस समय कानपुर में नौकरी करते थे। एक बार घर आने पर उन्होंने अपने बैंक का फोन नम्बर पिताजी को यह कहते हुए दिया कि यह फोन हमारी टेबिल पर ही है अब सीधे बात हो जाया करेगी। हमने और हमारे छोटे भाई ने भी चाचा से उनका फोन नम्बर ले लिया।
हमने कक्षा 6 से कक्षा 12 तक की शिक्षा राजकीय इंटर कालेज से प्राप्त की है। इसके पास ही जिला चिकित्सालय है, जहाँ हमारी मामी उन दिनों नौकरी किया करतीं थीं। मामा-मामी चिकित्सालय के कैम्पस में ही रहा करते थे। हम अपने दोस्तों सहित लगभग रोज ही मामा-मामी के घर जाया करते थे।
इसी आवागमन के दौरान हमने एक दिन देखा कि चिकित्सालय में इंमरजेंसी वार्ड में एक फोन लगाया जा रहा है। हम लोगों के लिए बड़ी ही आश्चर्य की चीज थी वह फोन। अब मौका लगते ही हम लोग फोन को छूकर देख आते थे। अभी तक तो फोन अपने प्रधानाचार्य के कमरे में ही लगा देखा था या फिर मामी के आफिस में पर यहाँ कभी छूने को तो मिला नहीं था।
एक दिन मन में आया कि चाचा से बात की जाये। मामा से पूछा कि जो फोन यहाँ लगा है उससे बात कैसे होती है? मामा ने बताया कि उसमें नम्बर लिखे हैं, जिस फोन नम्बर पर बात करनी हो उनको घुमाओ और जब एक ट्रिन-ट्रिन जैसी आवाज सुनाई दे तो उसमें एक रुपये का सिक्का डाल दो। हमसे मामा ने पूछा कि कहाँ बात करनी है तो हमने कहा बस ऐसे ही जानकारी कर रहे थे।
अब समझ में आ गया था कि फोन कैसे करना है। वहाँ जाकर एक-दो नम्बर को घुमा कर ट्रिन-ट्रिन की आवाज भी सुन आये थे और अपनी छोटी सी जेबखर्च की राशि में से एक रुपया गँवा कर आवाज भी सुन आये थे। लगा कि अब चाचा से बात करनी आसान हो जायेगी। एक रुपये में जब चाहो चाचा से बात कर लो। खुशी तो बहुत थी पर ये मालूम नहीं था कि ये पब्लिक टेलीफोन है जो मात्र लोकल ही काम करेगा।
एक दिन चुपचाप फोन के पास पहुँचे, एक हथेली में चाचा की बैंक का नम्बर और दूसरी में एक का सिक्का दबाये। नम्बर घुमाये और इन्तजार कि अब ट्रिन-ट्रिन की आवाज सुनाई दे, नहीं सुनाई दी। एक बार, दो बार, तीन बार......फिर न जाने कितनी बार नम्बर घुमाया पर आवाज सुनाई नहीं दी।
पहले लगा कि शायद फोन खराब है। तभी एक आदमी ने आकर बात की तो लगा कि हम लोग ही गड़बड़ कर रहे हैं। अब हताश, हारे हुए सिपाही की तरह से बापस लौटे। दुख था चाचा से बात न हो पाने का फिर लगा कि कहीं गलत नम्बर तो नहीं लिख लिया? दिमाग दौड़ाते हुए घर आये, नम्बर देखा, एकदम सही।
घर में पिताजी से पूछने की हिम्मत नहीं हुई। अगले दिन कालेज से मामा के पास गये और अपनी समस्या बताई। मामा ने समझाया कि इस फोन से बस लोकल ही बात हो सकती है, एस0टी0डी0 नहीं। तब अपनी मूर्खता पर बहुत हँसी आई जो गाहेबगाहे आज भी फोन करने की बात सोच-सोच का आ ही जाती है। नादानी भले ही रही हो पर फोन करने का एहसास, फोन छूने का एहसास आज भी है।
फोन का वह एहसास भी है जब पहली बार फोन से बात की थी। इस बारे में बाद में।

4 टिप्पणियाँ:

अजय कुमार झा ने कहा…

वाह आपने तो कई पुरानी यादें ताजा कर दी

डॉo लखन लाल पाल ने कहा…

hamaare sath bhi badi majedar ghatna hui thi jab pahli baar phone kiya tha.
achchha sansmaran hai.

अक्षय कटोच *** AKSHAY KATOCH ने कहा…

bahut sahi. local ke daam pe STD ka majaa lena chahte the, tumhari aadat purani hai...

शरद कोकास ने कहा…

वाह डॉ.साहब यह किस्सा पढ़कर तो मज़ा आ गया । हमने भी पहली बार जब फोन देखा था तो कुछ ऐसी ही हरकतें की थीं ।