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रविवार, 8 नवंबर 2009
पहले तो मेरे हाथ कँपे और फिर मेरे पैर.... ऐसे जीता पहला कप########## दीपक 'मशाल'
दोस्तों यूं तो जिंदगी की अप्रत्यक्ष लम्बाई वाले सफ़र में हमें कई अहसासों से रूबरू होना पड़ता है, कई चाहे अनचाहे अहसासों से हमारी मुलाक़ात कराती है ये ज़िन्दगी नाम की हसीना.... लेकिन हर अहसास की कभी ना कभी शुरुआत होती है, किसी की ज़िन्दगी में कोई अहसास बहुत पहले होता है तो कभी किसी की में बहुत बाद में. लेकिन मेरे ख्याल से हर किसी को लगभग एक जैसे अहसास से गुज़रना ही पड़ता है, हाँ उनके रूप रंग अलग हो सकते हैं इतना ज़रूर है........और जब किसी अहसास की हमारे जीवन में शुरुआत होती है तो उसे हम कभी नहीं भूल पाते, क्योंकि वह, उस तरह का हमारा पहला अहसास होता है जो कि जीवन भर के लिए अविस्मरणीय याद बन के ताजे सीमेंट पर बनाये गए पैरों के निशान कि तरह हमेशा के लिए हमारे दिल और दिमाग पर छप जाता है.....हम अगर उसे याद ना भी करना चाहें तब भी वो अपने आप याद आ ही जाता है, ठीक वैसी ही खुशबू, ठीक वैसे ही ताप, वैसी ही हवा, वैसी ही आर्द्रता का माहौल बनाते हुए.......
अनगिनत पहले अहसासों में से एक वैसा ही अहसास मेरे सामने अपने आप ही आकर खड़ा हो जाता है और मुझे खींच ले जाता है उस समय में जब मुझे अपने जीवन का पहला कप एक पुरस्कार के रूप में मिला था(मैं पढ़ाई के अलावा अन्य कार्यकलापों में मिलने वाले पुरस्कारों की बात कर रहा हूँ)....
ज्यादा पुरानी नहीं बस सन १९९३ की बात है, जब मैं सरस्वती विद्या मंदिर, गल्ला मंडी, कोंच का ७ वीं कक्षा का छात्र था, पढ़ाई में अब्बल तो नहीं था लेकिन हाँ फिर भी तीसरे-चौथे नंबर पर रहता ही था. प्रारंभ से ही कला विषय में मेरी गहरी रूचि थी और ये बात सबपे ज़ाहिर हो चुकी थी क्योंकि शायद मेरे हाथों से सफ़ेद कागज़ पे आड़ी तिरछी गिरती रेखाएं कला के आचार्य जी को मेरे अन्य साथियों से बेहतर लगती थीं....
हमारे जिले में एक व्यक्तिगत संस्था 'ललित कला अकादमी, उरई' द्वारा हर वर्ष एक जिला स्तरीय बाल कला प्रतियोगिता का आयोजन होता था. उस वर्ष विद्यालय का प्रतिनिधित्व करते हुए ३ अन्य वरिष्ठ छात्रों के साथ मुझे भी उसमे भाग लेने का अवसर मिला. प्रतियोगिता एक कन्याविद्यालय(नाथूराम पुरोहित बालिका विद्यालय) में आयोजित होने के कारण मन में एक अजीब सी घबराहट तो पहले से ही थी की अगर चित्र अच्छा नहीं बना तो लड़कियों के सामने बेईज्ज़ती होगी. देखिये आप कि उतनी छोटी सी उम्र में भी इज्ज़त-बेईज्ज़ती का ख्याल पनपने लगता है... खैर और कई विद्यालयों से आये करीब ८० प्रतिभागियों के साथ मैं जब वहां पहुंचा तो पता चला कि 'मेरे शहर का मेला' विषय पर हम सबको सीमित समयावधि में एक रंगीन चित्र बनाना था.. कांपते हाथों से लगा चित्र बनाने.. रंग भी भर दिया.... साथ में कनखियों से औरों के भी देखते जाता कि कहीं मुझसे बेहतर तो नहीं बन रहा है.....कहीं कोई मुझसे जल्दी तो नहीं बना रहा है.... खासकर लड़कियों से डर था और एक लड़के से जो कि शहर के मशहूर पेंटर का सबसे छोटा बेटा था लेकिन था वो भी कमाल का चित्रकार....
करीब १ घंटे की मशक्कत के बाद चित्र बन तो गया लेकिन औरों के चित्र देखता तो कहीं ना कहीं कसक उठती कि 'यार इसने जो चीज़ डाली है वो मैं भी डाल सकता था लेकिन मैं क्यों नहीं सोच पाया? ओये उसकी कुल्फी वाले कि कमीज़ लाल अच्छी लग रही है मैंने हरी पहिना दी... उसने तो झूले में ८ पालकियां बनाईं मैंने ६ ही... अरे इसने तो मेले में बारिश भी दिखा दी अब इसका तो इनाम पक्का...' वगैरह वगैरह
अब बैठ गया मन मसोस कर और लगा सोचने कि 'बेटा दीपक तुम तो निकल लो पतली गली से, ये तुम्हारे बस का रोग नहीं, लोगों को तुझसे कई गुना ज्यादा कला कि समझ है.... आदि आदि.'
करीब आधे घंटे के बाद परिणाम घोषित हुए तो सबसे पहले तीसरे स्थान प्राप्त मेरे एक वरिष्ठ को बुलाया गया तो मन शंका से भर उठा कि 'इन भैया को पिछले साल जब प्रथम स्थान मिला था तो मैं सराहनीय पाया था, जब इस बार इन्हें खुद ही तृतीय मिला तो तेरा क्या होगा कालिए?'
दूसरे स्थान के लिए जैसी कि उम्मीद थी नगर के पेंटर महोदय के बेटे को बुलाया गया.... मैं बैठा रहा लड़कियों से नज़र बचा के दीवाल ताकने...
मगर अचानक प्रथम स्थान के लिए लगा जैसे एक नाम दीपक कुमार चौरसिया निर्णायक महोदय ने पुकारा हो...
मुझे अपने कानों पे विश्वास नहीं हुआ और लगा कि कोई और दीपक होगा.... लेकिन जब २ बार उन्होंने फिर से विद्यालय का नाम लेकर बुलाया तो शरीर में कुछ हलचल हुई.. लेकिन उठने की हिम्मत ही नहीं हुई, पैर जैसे जमीन पे चिपक गए... अब पुरस्कार लेने जाएँ तो कैसे जाएँ मेरे तो पैर कांपे जा रहे थे भाई, इस अप्रत्याशित निर्णय(आघात) से... तभी मेरे ही एक वरिष्ठ भैया जी ने मुझे हिलाया और कहा दीपक भाई जाओ तुम्हारा ही नाम पुकार रहे हैं मुबारक हो!!!! तब जाके किसी तरह मैं खड़ा हुआ और लगभग दौड़ता सा स्टेज पर पहुंचा, पुरस्कार लेते समय आँखों के सामने अँधेरा छा गया, फिर भी जैसे तैसे अपने दिल की धड़कनों पर काबू पाते हुए... कप को अपने हाथों में लेके सीने से चिपटा लिया.. ऐसे जैसे कि वो वापस छीन लेंगे... और अपनी जगह वापस आने के करीब १५-२० मिनट बाद जब सामान्य हुआ तो मन बल्लियों उछल रहा था और झूमने का मन कर रहा था..... लगता था की सारी दुनिया को चिल्ला चिल्ला के बता दूं कि मैंने क्या जीता है.....हो ना हो आधे मोहल्ले को तो वो कप दिखाया ही था.....
तो ऐसा था मेरा पहला कप जीतने का अहसास, जिसके बाद जीवन में कई पुरस्कार मिले कभी शिक्षा के लिए तो कभी कविता-कहानी के लिए, कभी अभिनय के लिए तो कभी सामान्य ज्ञान के लिए...... यहाँ तक कि उसी चित्र पर जिला स्तर पर भी द्वितीय स्थान मिला मगर उस अहसास के जैसा अहसास, फिर कभी नहीं हुआ... यहाँ पर एक आवश्यक प्रार्थना भी सुना रहा हूँ जो अक्सर प्रभु से करता रहता हूँ......जिसके बिना ये पोस्ट अधूरी है......
इक हाथ
कलम दी देव मुझे,
दूजे में
कूंची पकड़ा दी,
संवाद मंच पर बोल सकूं
ऐसी है तुमने जिह्वा दी.......
पर इतने सारे मैं हुनर लिए
कहीं विफल सिद्ध ना हो जाऊं,
तूने तो
गुण भर दिए बहुत,
खुद दोषयुक्त ना हो जाऊं.
भूखे बच्चों के पेटों को
कर सकूं अगर,
तो तृप्त करुँ...
जो बस माथ तुम्हारे चढ़ता हो
वो धवल दुग्ध ना हो जाऊं......
इतनी सी रखना कृपा प्रभो
मैं आत्ममुग्ध ना हो पाऊं......
मैं आत्म मुग्ध ना हो पाऊं....
आपका-
दीपक 'मशाल'
चित्रांकन- दीपक 'मशाल'
प्रस्तुतकर्ता दीपक 'मशाल' पर 5:52 am
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8 टिप्पणियाँ:
kuch sansmaran mujhe nashe mein lekar chali jaati hai aur apne din yaad aa jate hain.. kabhi kabhi ye bhi sochta hun ki apni diary ke wo asankhya prishtha sabko suna dun.. par samay ki badhayein..
padh kar laga jaise khud ka "green building" wali presentation prize ka version 2.0 ho ya phir internship ke result ka beta version ho... bahut accha laga..
waqt lagega mujhe nashe se nikalne mein...
aisa lagbhag sabhi ke saath hota hai, hamaare saath bhi huaa tha kahaanikaar ke chayan se samay.........
likhenge tab dekhna.
is post ke liye badhai.
pehli jeet...pehla inaam...kitna yadgaar hota h n...
apke sansmaran me vo khushi nazar aa rahi ha jo apko mehsoos hui hogi....
आज तो लोग दान में भी बिजनेस तलाश करते हैं.
wakai bada sundar chitran kiya hai apne.bas yahi kahenge ki bad maza aaya padkar...
दीपक जी ने, मेरी मन की बात कही है -
इतनी सी रखना कृपा प्रभो
मैं आत्ममुग्ध ना हो पाऊं......
मैं आत्म मुग्ध ना हो पाऊं....
शानदार संस्मरण. बहुत बधाई!!
बहुत अच्छा मन और लेखनी पायी है,ईश्वर तुम्हारी सोच ठीक रखे ! शुभकामनायें !
भाई दीपक जी आपकी टिप्पणी पढ़ कर अच्छा लगा, पर क्या आपने एक अन्याय नहीं किया ....
कि आप अपनी वो पेंटिंग जिसने आपको पेंटिंग का वो सुखद अहसास दिया ...हमको नहीं दिखाना चाहिए ...
कृपया वो पेंटिंग जरूर दिखाएं .....
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