ये तो सच है कि अपने जीवन का पहला अहसास कोई बड़ी मुश्किल से ही भूल सकता है. अब वह अहसास अच्छा है या बुरा उसका फर्क इतना पड़ता है कि बुरे अहसासों को लोग बहुत कम भूल पाते हैं. इंसानी फितरत ही ऐसी है.. देखिये ना हमारे साथ किये गए अहसान हम भूल सकते हैं लेकिन कोई अगर हमारा कुछ बिगाड़ दे या हमारे साथ जाने-अनजाने में कुछ बुरा कर दे तो मजाल कि हम आसानी से उसे भुला दें.
हाँ तो यहाँ आज एकबार फिर अपने जीवन के एक और पहले अहसास का जिक्र करने जा रहा हूँ.. और वो अहसास जुड़ा हुआ है मेरे खुद के साथ घटी पहली दुर्घटना से. आमतौर पर दुर्घटना शब्द बोलने पर मस्तिष्क के ७२ इंच के श्वेत परदे पर जो चित्र प्रक्षेपित होता है वो सड़क हादसे से जुड़ा ही लगता है या फिर उसमे किसी मशीन का कहीं ना कहीं कोई ना कोई योगदान प्रतीत होता है. लेकिन दुर्घटना सिर्फ सड़क या मशीन से जुड़ी ही नहीं होतीं कई बार आप अपने आप घर बैठे दुर्घटनाओं को निमंत्रण पत्र थमा देते हैं, जैसा कि मैंने किया देखिये कैसे-
अब मेरे दोनों हाथों में एक में रसगुल्ले और एक में समोसे.. मैं आगे-आगे चल दिया. हाँ तो बताना जरूरी है कि उनका घर ऐसा बना हुआ था कि मुख्य द्वार से अन्दर जाकर एक काफी लम्बी गैलरी फिर आँगन फिर सीढियां और फिर छत और उसके बाद वो कमरे जहाँ पर उसका घर था. हमारे यहाँ बंदरों की बहुतायत है इसलिए रोज ही उनसे मुठभेड़ होती रहती है और जब कभी छत पर गेंहू या धान वगैरह सूखने के लिए डालते तो फिर इन वानर श्रेष्ठों की कभी-कभी छतों पर पार्टी भी हो जाया करती थी. तो दुर्भाग्यवश उस दिन उनकी छत पर गेंहूं सूख रहा था और मैं उस बालक का नेतृत्व करते हुए जब छत पर पहुंचा तो देखा कि करीब १०-११ बन्दर छत पर कच्चे गेंहू का आनंद ले रहे हैं. वो बच्चा तो बन्दर देखते ही चुपचाप सीढ़ियों से नीचे उतर लिया और मैं जब तक पलटता कि किसी शातिर बन्दर ने मेरे हाथ के रसगुल्लों पर नीयत ख़राब कर दी. खुद तो ठीक बाकी सब बंदरों को भी 'खों-खों' कर पार्टी का माल उड़ाने का इशारा कर दिया.
बस फिर क्या था घेर लिया गया मुझे. मैं भी कुछ ज्यादा ही अक्लमंद निकला और ये सोच लिया कि भाई इन्हें दे दिए तो और रसगुल्ले कहाँ से लाऊंगा? बस फिर क्या था चुपचाप वहीँ बैठ गया और उनके आक्रमण झेलता रहा. अब एक धरमेंदर और १०-११ अमरीश पुरी तो कब तक बचता भाई.. जब लगा कि उनके दाँत और नाखून शरीर में कई जगह तो लगे ही लेकिन सिर में कुछ ज्यादा ही गड़ चुके हैं और अब ज्यादा देर की तो मीठे सीरे के बजाय इन्हें मेरे शरीर में बहता लाल सीरा पसंद आ जायेगा और वैसे भी हाथ में जो प्लेट थीं वो दर्द के कारण कब मुट्ठी में भींच गयीं पता भी ना चला, तो दोबारा अकल लगाई कि भाई अब छोड़ दे ये सने हुए रसगुल्ले अब कोई ना खायेगा.
उधर वो बालक नीचे जाके चुपचाप खड़ा रहा और किसी को इत्तला भी नहीं किया कि मेरे साथ क्या ज़ुल्म हो गया. :) मैं कुछ इस उम्मीद में था कि वो किसी को बताएगा तो मेरे रक्षक कोई देव आयेंगे, पर ऐसा कुछ ना हुआ अंततः जब मैंने रसगुल्ले और समोसे वहीँ फेंक दिए तो सारे लफंगे बन्दर मुझपर जोर-आज़माइश छोड़ उनका इंटरव्यू लेने के लिए मुखातिब हुए और मैं नीचे उतर कर आँगन, गलियारा पार करता हुआ बाहर चबूतरे पर जाकर खड़ा हो गया.
अब चूंकि मेरा घर सड़क पार करते ही सामने ही था तो मेरी मम्मी ने छत से मुझे देख लिया. तब तक मेरी स्कूल की सफ़ेद शर्ट मुफ्त में पूरी सुर्ख हो चुकी थी. मम्मी तो देखते ही गश खा कर गिर गयीं और जब वो गिरीं तो बाकी लोगों कि नज़र भी मुझ पर इनायत हुई कि मम्मी क्या देख कर मूर्छित हो गयीं. जब तक लोग आये तो दर्द और रक्तस्राव के कारण ग्लेडिएटर दीपक जी बेहोश होने की हालात में पहुँच गए थे.
बस आनन-फानन में ताऊ जी के क्लिनिक में पहुँचाया गया, फिर क्या हुआ ज्यादा याद नहीं हाँ बस इतना याद है कि मुझे चेतन रखने के लिए डॉक्टर ताऊ अपने बेटे से कह रहे थे कि- 'देखो कितना बहादुर बच्चा है १० बंदरों से लड़ा और ७ टाँके सर में लगवाए तब भी नहीं रोया और एक तुम हो जो एक इंजेक्शन में रोते हो'. अब तारीफ सुन मैं भी खुद को पहलवान समझने लगा था जबकि भाई हकीकत में तो बंदरों से लड़ा नहीं बल्कि चिथा था. :) ''
तो कैसी लगी ये राम ऊप्स दीपक कहानी?? यानि बंदरों से चिथने का पहला अहसास.. वैसे आखिरी भी तो यही था क्योंकि इसके बाद बंदरों का आतंक मन से ऐसा निकला कि जब भी बन्दर देखता तो उनकी तरफ खाली हाथ ही दौड़ पड़ता और अबकी वो बेचारे भाग रहे होते मुझे देखकर..
दीपक 'मशाल'
चित्र में मेकअप राजीव तनेजा जी द्वारा किया गया
30 टिप्पणियाँ:
बचपन का रोमांचक अनुभव रहा होगा यह भी दीपक जी !
ग्लेडिएटर दीपक जी की राम कहानी...रोमांचित कर गई...आह!! ओह! निकलता रहा...साज सज्जा में तो राजीव माहिर हैं..उन्हें तो बंदरों से निपटना नहीं था. :)
एक गलती की कीमत अब बंदरों को जिंदगी भर चुकानी पड़ेगी ।
बंदरों को बेशक भगाते रहो , पर भाई बंदरियों को मत भगाना ।
वरना जिंदगी भर , बिना वज़ह ही पड़ेगा पछताना ।
किसी बंदरी से मिलकर आपकी हालत होगी सो होगी ,
किन्तु पछताने की एक वज़ह तो होगी। :)
वाकई १०-११ अमरीशपुरियों को अकेले झेलना बहादुरी से कम तो नहीं :)
दीपक,
मज़ेदार किस्सा...अब बड़े हो चुके हो, डॉक्टर दराल के प्रेसक्रिप्शन पर गौर करो...
जय हिंद...
हा हा हा हा।दीपक मज़ा आ गया पढकर।बचपन में लौट गया मैं भी।हमारे घर के पीछे भी दादाबाड़ी थी जंहा खूब पेड़ थे और उनपर बंदर भी रहते थे।बंदर अकसर हमारे और आस-पड़ोस के घरों मे बाहर सूख रहे कपडे या खाने की चीज़े ले भागते थे लेकिन न कभी हमें धमेंद्र बनने का सौभाग्य मिला और न कभी वे लोग अम्बरीश पुरी बन पाये।विकास की अंधी दौड़ मे कब पेड़ कटे और कब बंदर चले गये पता ही नही चला।
उफ़ बहुत ही खौफ़नाक वाकया था।
बगल वाली बन्दरिया बहुत सुन्दर है। मामला कहाँ तक पहुँचा है?
अरे एक दो कविताये सुना देते.... सारे बंदर ना भागते तो कहते
ha ha ha Deepak ji shukr hai ki aap sahi salamat hai.Bandar aur kaouwe ye dono hi bade khatarnak hote hain inse dushmani lena thik nahinn rahta.
:)
aji ab bhi bandar waise hi hote hain so kabhi aisa stunt dubara dene ki na sochein :P
आप सब से गुज़ारिश है कि अपने भी पहले अहसास लोगों में बांटने के लिए इस ब्लॉग पर प्रकाशित होने को भेजें..
मान गये यार ।
जान जाये तो जाये पर रसगुल्ला न जाये ।
बहुत ही सुन्दर एहसास हैं!
पढ़ कर हुआ आभास है!
वाह वीर बहादुर का बचपना भी बहाउरी भरा रहा
दीपक भाई
हम सभी बंदरों से आज़ भी जूझ रहे हैं
फ़र्क ये है कि
अब खून नहीं रिसता खून
जलता है
bandaron ki ajab gazab kahaani...
sundar abhivyakti
चलिए इस दीपक कहानी से यह तो पक्का हुआ कि एक धरमेन्दर प्राजी १०-११ अमरीश पुरियों पर भारी तो पड़ ही गए। हा हा। बहुत रोचक वृतांत मगर रोंगटे भी खड़े करने वाला। ऊपरवाले ने बहुत बचाया आपको।
इसके बाद बंदरों का आतंक मन से ऐसा निकला कि जब भी बन्दर देखता तो उनकी तरफ खाली हाथ ही दौड़ पड़ता और अबकी वो बेचारे भाग रहे होते मुझे देखकर..'
यह तो सरासर बन्दरों की गलती थी अब भुगतें.
Dipak Jaan jai par rasgulla na jai..
mast..
मेरे पहले अहसास को इतने ध्यान से पढ़ने के लिए आप सबका आभार..
भाई बचपन तो ऐसा होता ही है, हम भी कानपुर मे घी चुपड़ी रोटी छत पर लेकर जाते थे तो कौवा लेकर भाग जाता था और हाथों मे चोट आ जाती थी।
हे भगवान...ये रसगुल्ले जो ना कराएं...BTW किसके लिए लेकर जा रहें थे..:)
जो बंदरों से भी लोहा ले लिया ...पर मुझे तो सच बहुत गुस्सा आ रहा है बंदरों पर वे कच्चे गेहूँ नहीं खा सकते...घायल कर दिया एक छोटे से बच्चे को...
पढ़ कर बहुत डर लगा , आपका होसला काबिले तारीफ़ है |
Aap shabd chitran ke sahare hame wahin le gaye jahan yah hadsa ghata..aankhon dekha haal!
Waise aisa-sa ek anubhav mujhe bhi bachpanme aaya tha...!
he bhagwaan !!!!!!!! main to wahin pe dher ho jaata, bandro se to bhagwan bachaye, kabhi rasoi ke tala nahi lagate to bandar puri dawat mana ke hi jate thye
बहुत प्रभावशाली है |
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