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बुधवार, 21 अप्रैल 2010

पानी...आटा....पानी....आटा....हो गया बेड़ागर्क

बात उन दिनों की है जब हम कक्षा 9 में या 10 में पढ़ रहे होंगे। गरमी के दिन थे और परीक्षाओं के प्रेत से भी मुक्ति मिल चुकी थी, मई या जून की बात होगी।

गरमी के कारण या फिर किसी और कारण से अम्मा जी की तबियत कुछ बिगड़ सी गई। अपनी क्षमता के अनुसार उन्होंने उस दशा में भी हम तीनों भाइयों का और घर का सारा काम सम्पन्न किया। लगातार काम करते रहने और कम से कम आराम करने के कारण अम्मा की तबियत ज्यादा ही खराब हो गई।

अम्मा तो पड़ गईं बिस्तर पर और मुसीबत आ गई हम भाइयों की। खाने की समस्या, सुबह नाश्ते की दिक्कत। पड़ोस हम लोगों को बहुत ही अच्छा मिला हुआ था इस कारण समस्या अपना भयावह स्वरूप नहीं दिखा पाती थी। बगल के घर की दीदी आकर मदद करतीं और हम तीनों भाई दौड़-दौड़ कर उनका हाथ बँटाते रहते।

दो-तीन दिनों के बाद एक शाम हमने अम्मा से कहा कि आज हम आटा गूँथते हैं। अम्मा ने मना किया कि अभी तुमसे ऐसा हो नहीं पायेगा पर हमने भी ऐसा करने की ठान ली। अपने नियत समय पर दीदी को भी आना था तो यह भी पता था कि उनके आते ही हमारा यह विचार खटाई में पड़ जायेगा। हमने अपने कार्य को करने के लिए पूरा मन बना लिया था।

इससे पहले कभी भी आटा गूँथा नहीं था सो मन में कुछ ज्यादा ही उत्साह था। यह भी विचार आ रहा था कि हम अम्मा का एक काम तो कर ही सकते हैं। अम्मा आँगन में चारपाई पर लेटीं थीं और हम जमीन पर आटा, परात, पानी का जग लेकर बैठ गये। अम्मा ने जितना बताया उतना आटा परात में डालकर उसमें पानी मिलाया।

अब शुरू हुई हमारी आटा कहानी, पानी डरते-डरते डाला तो कम तो होना ही था। अम्मा के निर्देश पर थोड़ा सा और पानी डालकर गूँथना शुरू किया। आटे का स्वरूप कुछ-कुछ सही आने लगा पर अभी पानी की कमी लग रही थी। अम्मा के कहे फिर पानी डाला और हाथ चलाने शुरू किये।

अब लगा कि पानी कुछ ज्यादा हो गया है। जब पानी ज्यादा हुआ तो थोड़ा सा आटा मिला दिया। हाथ चलाये तो लगा कि आटा ज्यादा है, फिर पानी की धार............।

ऐसा तीन बार करना पड़ गया। आटा, पानी....पानी, आटा होते-होते आटा अन्ततः गुँथ तो गया किन्तु बजाय हम चार-पाँच लोगों के कम से कम आठ-नौ लोगों के लिए काफी हो गया। अब क्या हो? याद आये फिर भले पड़ोसी।

दीदी को आवाज दी, जितना आटा हम लोगों के काम आ सकता था उतना तो निकाला शेष दीदी के हवाले कर दिया। दीदी ने मुस्कुराते हुए शाबासी भी दी और अम्मा ने भी हौसला बढ़ाया।

इसका परिणाम यह निकला कि एक-दो दिन की आटा-वृद्धि के बाद हमने आटा भली-भाँति गूँथना सीख लिया। इस सीख का सुखद फल हमें तब मिला जब हम पढ़ने के लिए ग्वालियर साइंस कॉलेज के हॉस्टल में रहे। मैस के लगातार बन्द रहने के कारण पेट भरने में इस आटा-कहानी ने बड़ी मदद की।

7 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari ने कहा…

हमसे बस आंटा आज भी नहिं गूथ पाता..अच्छा हुआ इस बहाने आप सीख गये.

mamta ने कहा…

बड़ा ही रोचक संस्मरण है। और अच्छी बात ये कि आपको आटा गूँथना आ गया। :)

पूनम श्रीवास्तव ने कहा…

bahut hibadhita raha aaapka aata, paani aata abhiyan. padh karhansi bhi aai aur maja bhi liya.vaise ye ghatna mere patidev ji ke saath bhi ho chuki hai javo noukari karan akele rahate the inki tab shaadi bhi nahi hui thi.fark itana hua ki aapkka aata to kaam aa gaya par inke sane aate ne gau mata ko purnatah tript kar diya.
poonam

suFiCat ने कहा…

beshak bahot khoob alfaaz rakam kiye hai

suFiCat ने कहा…

beshak bahot khoob alfaaz rakam kiye hai

sm ने कहा…

like the narration
beautiful

अरुणेश मिश्र ने कहा…

हमारे साथ भी यही हुआ । रोचक ।