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शनिवार, 19 दिसंबर 2009

धांय-धांय-धांय.....एक के बाद एक तीन फायर


इसे जातिगत असर कहा जाये या फिर आसपास का वातावरण कि बचपन से ही हमें हथिययारों ने बहुत ही लुभाया है। गाँव में भी पुरानी जमींदारी होने के कारण नक्काशीदार तलवारें और अन्य अस्त्र-शस्त्र देखने को मिलते रहते थे। इसके अलावा घर में रिवाल्वर, बन्दूक होने के कारण भी इनके प्रति एक प्रकार की रुचि बनी हुई थी।
कभी-कभी बन्दूक और रिवाल्वर चलाने का मन भी होता था। घर में विशेष रूप से दशहरे के पूजन के बाद रिवाल्वर और बन्दूक चलाने का काम पिताजी या चाचाजी के द्वारा होता था। छत पर जब भी दशहरे और दीपावली पर पूजन के बाद बन्दूक, रिवाल्वर चलाने का उपक्रम होता तो हम बस ललचा कर ही रह जाते।
इन पर्वों के अलावा कभी खुशी के अवसर पर भी धमाके कर लिए जाते थे पर इनको करने की जिम्मेवारी सिर्फ और सिर्फ पिताजी की होती, हाँ, यदि घर में उस समय चाचा वगैरह हुए तो वे भी इसमें हिस्सा ले लेते थे।




बात होगी कोई 1990 की जब हम स्नातक के प्रथम वर्ष में थे। ग्वालियर से छुट्टियों में घर आना हुआ। उसी समय हमारे एक पारिवारिक मित्र के घर नवजात शिशु का आगमन हुआ। अवसर हम सभी के लिए खुशी का था। सभी लोग उन्हीं के घर पर उपस्थित थे।
जैसा कि होना था, बन्दूक तो चलनी ही थी। हम चिरपरिचित अंदाज में शांत बैठे थे क्योंकि हमें मालूम था कि पिताजी की दृष्टि में हम अभी इतने बड़े नहीं हुए कि बन्दूक चलाने को मिले। मन तो बहुत कर रहा था किन्तु कहते कैसे? चुपचाप बैठे थे कि तभी पिताजी ने आवाज देकर हमें बुलाया।
आराम से उठकर उनके पास तक पहुँचे तो पिताजी ने बन्दूक हमें थमा दी और साथ में कारतूस की पेटी। दोनों चीजें एक साथ देकर पिताजी ने कहा कि-‘‘तुम चाचा बन गये हो और अब बड़े भी हो गये हो। चलाओ।’’ चूँकि घर में बन्दूक की सफाई आदि का काम हमारे जिम्मे ही था इस कारण बन्दूक के संचालन का तरीका भी हमें ज्ञात था। और फिर अंधा क्या चाहे दो आँखें, हमने हाँ कही तो पिताजी ने इतना कहा कि ‘‘चला लोगे? बस आराम से, सुरक्षा के साथ चलाना।’’
मन ही मन प्रसन्नता का अनुभव भी हो रहा था साथ ही एक डर भी लग रहा था कि कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाये। बन्दूक के चलने पर पीछे लगने वाले धक्के के बारे में भी सुन रखा था जिसका भी डर लग रहा था। मन ही मन खुद को हिम्मत बँधाई और खुले में आकर बन्दूक में कारतूस डाल ऊपर कर फायर कर दिया।
एक फायर हुआ, कैसे हुआ यह समझ ही नहीं आया। सब कुछ सही-सही दिखा। बन्दूक का झटका भी उतना नहीं लगा जितना सुन रखा था, बस इससे भी हिम्मत बँधी। बन्दूक की नाल खोल चला कारतूस बाहर निकाला। दूसरा कारतूस लगाया और किया दूसरा फायर, फिर तीसरा कारतूस डाला और तीसरा फायर। एक के बाद एक तीन फायर करके लगा कि बहुत बड़ा किला जीत लिया हो।
तीन फायर करने के बाद बन्दूक इस तरह थामकर बैठे मानो विश्व-विजय के बाद बापस आये हों। उसके बाद कई मौके आये जब हमने बन्दूक चलाई किन्तु जो रोमांच पहली बार चलाने में आया वह आज भी भुलाये नहीं भूलता है।

1 टिप्पणियाँ:

डॉ महेश सिन्हा ने कहा…

तो इसमे भी महारत हासिल है जनाब को :)