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बुधवार, 9 सितंबर 2009

अध्यापनका प्रारंभिक अनुभव

मैंने दयानंद वैदिक महाविद्यालय ,उरई में ४ सितम्बर १९७४ को अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया । मई अपने महाविद्यालय का ही छात्र रह चुका था । पहले ही दिन हमारे विभागाध्यक्ष डा ० उदय नारायण शुक्ल ने कहा ,' जाओ ,B. A.(Final) का Class पढ़ाओ। यह कक्षा सबसे अधिक शरारती छात्रों की हुआ करती थी । मै जब क्लास में गया और पढाना शुरू किया तो देखा कि छात्र -छात्राएं मंद -मंद मुस्करा रहे हैं और मेरी बात पर अधिक ध्यान नहीं दे रहे हैं। मैंने मुड़ कर Black Board की तरफ़ देखा तो वहाँ पर एक शेर लिखा था -
इश्क का जौके नज़ारा मुफ्त में बदनाम है ;
हुस्न ख़ुद बेताब है जलवे दिखाने के लिए ।
मुझे बड़ा क्रोध आया पर अपने पर काबू रखते हुए बच्चों को समझाया कि कक्षा में छात्र -छात्राएं एक परिवार की तरह होते है ,अगर कुछ बाहरी असामाजिक तत्व मौका पा कर छात्रों के लिए कुछ उलटी -सीधी बातें लिख देते हैं तो कक्षा शुरू होने से पूर्व उन्हें मिटा दिया करें। यदि कोई छात्र रँगे हाथों पकड़ा गया तो उसे कालेज से निकला भी जा सकता है। छात्रों ने मेरी बात पर सहमति जताई ।अगले दिन जब मै पुनः कक्षा में गया तो Board पर एक शेर लिखा हुआ था -
हमने तुमसे मोहब्बत की थी ,अबला समझ कर ;
तुम्हारे चचा हमें ठोक गए ,तबला समझ कर ।
मुझे बड़ी हँसी आयी और एहसास हुआ कि बच्चों ने मेरा संदेश सही ढंग से समझ लिया । उस दिन के बाद से कभी भी मेरी कक्षा कोई भी अभद्र टिप्पणी लिखी हुई नहीं मिली । आज ३५ वर्षों के बाद भी जब इस घटना की याद आती है तो बरबस ही होठों पर मुस्कान आ जाती है।

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