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बुधवार, 9 सितंबर 2009

बेटी के बड़े होने का पहला एहसास

होली के त्यौहार पर हर वर्ष की तरह मैंने गुंजिया और दही बड़े बनाये थे! बेटी बोली -माँ कुछ ज्यादा बना लेना ,मेरे कुछ मित्र आयेगे !मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी! ऐसे अवसरों पर दोस्तों और मित्रों का खानपान तो चलता ही रहता है !
होली के दिन करीब दस बजे दरवाजे के सामने सड़क पर जोर जोर से हौर्न बजने लगे! दूसरे ही मिनिट किवाड़ों पर थपकियाँ सुनाई दीं मानो तबले पर कहरवा बज रहा हो ! बेटी पिंकी ने दरवाजा खोला !एक -एक करके ७-८ लड़के -लड़कियां ड्राइंग -रूम में घुस आये ! मेरी हालत देखने लायक थी !अभी तक मैंने उसकी सहेलियां ही देखी थीं सहेला नहीं ! एकाएक निंद्रा टूटी -कालिज में तो लड़के -लड़कियाँ दोनों पढ़ते हैं, मित्र तो कोई भी हो सकता है !
पिंकी ने हमें उन सबसे मिलाया , कुछ खानपान करने के बाद बोली --माँ ,हम होली खेलने जा रहे हैं ,लौटने में चार -पॉँच बज जायेंगे !
एक झटका फिर लगा ! दिमाग में भूचाल आया गया - ये मिलकर होली खेलेंगे !-अन्दर के संस्कार बोल उठे !मर्यादा का गला घुटने लगा ! थूक सटकते पूछा -क्या बहुत दूर जाना है ? लौटोगी कैसे ?
तभी पिंकी का सहपाठी बोला -आंटी ,चिंता न करो! पहले आधी दर्जन बहनों को उनके घर छोड़ेंगे फिर अपने घर की ओर कदम बढायेगे !
कर्तव्य का इतना बोध

इन अनुभवों के मध्य सुमित्रा नन्द की कुछ पंक्तियाँ स्मरण हो आई --

'फिर परियों के बच्चों से हम
सुभग सीप से पंख पसार
समुन्द्र तैरते शुची ज्योंत्सना में
पकड़ इंदु के कर सुकुमार !'
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सुधा भार्गव

2 टिप्पणियाँ:

डॉ महेश सिन्हा ने कहा…

सहज मातृत्व चिंता

sunil patel ने कहा…

A real feeling of parents expressed in very few words.