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बुधवार, 23 सितंबर 2009

जब सिनेमाघर में पहली फिल्म देखी

दसवीं कक्षा में आने तक कभी सिनेमाघर में फिल्म नहीं देखी थी उससे पहले नागौर जिले के मोलासर कस्बे में भरने वाले हिंडोला नामक मेले में प्रोजेक्टर के माध्यम से परदे पर खुले मैदान में दिखाई जाने वाली फिल्मे ही देख पाए था मेले में शहीदों पर व देश भक्ति की कई फिल्मे फ्री में दिखाई जाती थी मेले का प्रबंधन मोलासर निवासी प्रसिद्ध ओद्योगिक सोमानी परिवार द्वारा किया जाता है | चचेरा भाई हनुमान सिंह फिल्मो व फ़िल्मी गानों का शौकीन था उसने उस वक्त तक कई फिल्मे भी देख रखी थी वह अक्सर हमें फिल्मो की कहानियां व सिनेमाघरों के बारे में बताया करता था इस मामले में हम अपने आप को उसके सामने निरा बुद्दू ही समझते थे साथ ही हनुमान सिंह की प्रतिभा के कायल थे कि कैसे ये तीन तीन घंटे की पूरी फिल्मो की कहानी और डायलोग याद कर लेता है जबकि हमें तो एक प्रश्न का उत्तर याद करने के लिए कितनी रटत लगानी पड़ती है | हनुमान से फिल्मो की कहानियां व सिनेमाघरों की बाते सुनकर सिनेमाघर में फिल्म देखने की बड़ी जिज्ञासा होती थी |
आखिर दसवी कक्षा में पढ़ते समय ही हमें जीवन में पहली बार सिनेमाघर में फिल्म देखने का सोभाग्य प्राप्त हुआ और वह भी जयपुर के विश्व प्रसिद्ध सिनेमाघर " राजमंदिर सिनेमाघर " में | दसवी कक्षा में पढ़ते समय हमारी सरकारी स्कूल " राजकीय माध्यमिक विद्यालय ,खूड " के शिक्षकों ने हमें शेक्षणिक भ्रमण पर ले जाने का दो दिवसीय कार्यक्रम बनाया | कार्यक्रम के अनुसार हमारा दल खूड कस्बे से रवाना होकर सुबह अजमेर पहुंचा जहाँ दिन भर अजमेर भ्रमण के बाद हम शाम को तीर्थ राज पुष्कर पहुंचे | रात्री विश्राम के बाद सुबह पुष्कर सरोवर में स्नान कर ब्रह्मा मंदिर सहित अन्य मंदिरों के दर्शन कर हम जयपुर पहुंचे | दिन भर जयपुर आमेर आदि के दर्शन करने के बाद हमें रात ९ बजे राजमंदिर सिनेमाघर में फिल्म दिखाने के कार्यक्रम के तहत हमें राजमंदिर सिनेमाघर ले जाया गया | जीवन में पहली बार सिनेमाघर और वो भी प्रसिद्ध राजमंदिर में फिल्म देखने की उत्सुकता व रोमांच का जो अहसास उस वक्त हो रहा था उसे तो में सिर्फ महसूस ही कर सकता हूँ शब्दों में बयान नहीं कर सकता | लेकिन उस रोमांच के साथ मन में एक शंका भी उथल पुथल मचा रही थी क्योकि हनुमान ने बताया था कि राजमंदिर सिनेमाघर में ऐसे गलीचे बिछे है जिन पर पैर रखते ही पैर आधा फीट गलीचे के अन्दर धंस जाता है और समझो ध्यान नहीं रखा तो वहीँ धडाम | हालाँकि गलीचे पर गिरने से चोट तो नहीं लगेगी पर फजीहत तो होगी ही ना | उसने कुर्सियों के बारे में भी बताया कि बैठते ही फेल जाती है वहां भी धडाम होने से बचने हेतु सावधानी बरतनी पड़ती है |
गुरुजन साथ थे तो हमें अनुशासन में तो रहना ही था अतः सभी छात्रों ने एक लाइन बना सिनेमाघर में घुसने के लिए कदम बढाये | सिनेमाघर में घुसते ही वहां बिछे शानदार गलीचे पर बड़े संभल कर हमने कदम रखे कि हनुमान ने जो बता रखा था वो ना हो जाय यही नहीं सीट पर बैठते समय भी पूरी सावधानी बरती ! कही धडाम ना हो जाये और पूरी क्लास जिसमे होसियार बनते थे के सामने कहीं फजीहत ना हो जाये | खैर सीट पर बैठते ही फिल्म " सावन को आने दो " शुरू हो गयी | कब तीन घंटे बीते और कब फिल्म पूरी हो गयी पता ही नहीं चला | जब राजमंदिर सिनेमाघर से बाहर निकले तो अपने आप पर बड़ा फक्र हो रहा था आखिर हमने अपने जीवन में फिल्म देखने की शुरुआत राजमंदिर जैसे विश्व प्रसिद्ध सिनेमाघर से जो की थी | ;

बुधवार, 16 सितंबर 2009

लगे कि हर आदमी टिकट चेकर है

यह घटना एस समय की है जब लातूर में भूकम्प आया हुआ था। हम अपने छोटे भाई हर्षेन्द्र के साथ एक टेस्ट देने के लिए आगरा गये थे। रेलवे की परीक्षा थी, टेस्ट दिया और बापस चल दिये। हम लोगों को कानपुर आना था। टेस्ट देने के बाद हम लोग चले तो रेलवे स्टेशन पर पता लगा कि उस समय कानपुर के लिए कोई ट्रेन नहीं है। जानकारी करने पर मालूम हुआ कि आगरा से टुंडला पहुँच कर वहाँ से आसानी से कानपुर के लिए ट्रेन मिल जायेगी।
आगरा से टुंडला बस से आने के बाद रेलवे स्टेशन पहुँचे। आपकी एक शंका को दूर करने के लिए बताते चलें कि एक तो टेस्ट होने के कारण बसों में भीड़ बहुत थी दूसरे हमें बस की यात्रा तकलीफ ज्यादा देती है। इस कारण से हम ट्रेन से यात्रा करने की सोच रहे थे।
टुंडला स्टेशन पर जैसे ही पहुँचे पता लगा कि एक ट्रेन आ रही है। हालांकि ट्रेन थी पैसेंजर और कानपुर पहुँचना बहुत ही आवश्यक था। इस ट्रेन के बाद दो-तीन घंटे कोई ट्रेन भी नहीं थी। जल्दी से टिकट खिड़की पर पहुँचे तो वह समय सम्बन्धित बाबू की ड्यूटी बदलने का था तो वह अपने हिसाब किताब में व्यस्त था। ट्रेन सामने आती दिख रही थी। उससे बड़ी अनुनय-विनय की पर वह नहीं माना। अब लगा कि यह ट्रेन तो निकली। हमारे भाई ने प्लेटफार्म से आकर सूचना दी कि गाड़ी आकर खड़ी हो गई है। अब तो और भी हालत खराब।
पहले सोचा कि बिना टिकट ही चढ़ जायें पर कभी बिना टिकट यात्रा न करने के कारण से हिम्मत नहीं हो रही थी। सोचा-विचारी में समय न गँवा कर हमने तुरन्त सामने दरवाजे पर खड़े एक टिकट चेकर से अपनी समस्या बताई। उस ने बिना कोई तवज्जो दिये पूरी लापरवाही से कहा कि बैठ जाओ, पैसेंजर में कोई नहीं पकड़ता।
समझ नहीं आया कि क्या करें? सुन तो बहुत रखा था कि इटावा रूट पर चेकिंग नहीं होती पर वही हिम्मत की बात।
अन्त में अपने भाई की तरफ देखा और उस टिकट चेक करने वाले से एक बार और पूछा कि भाईसाहब कोई दिक्कत तो नहीं होगी?
शायद उसको लगा होगा कि कोई अनाड़ी हैं जो पहली बार बिना टिकट यात्रा करने की हिम्मत जुटा रहे हैं। इस बार उसने थोड़ा सा ध्यान हम लोगों की ओर दिया और कहा कि वैसे बिना टिकट जाने में कोई समस्या नहीं फिर भी यदि टिकट लेना है तो दो स्टेशन के बाद यह गाड़ी थोड़ी देर तक रुकती है, वहाँ से ले लेना।
बस हम दोनों भाई तुरन्त लपके क्योंकि गाड़ी भी रेंगने लगी थी। बैठ तो गये, सीट भी मिल गई पर....।
आने जाने वाला हर आदमी लगे कि टिकट चेक करने वाला आ गया। कभी इस तरफ देखें, कभी उस तरफ देखें। लगभग 55 मिनट की यात्रा के बाद वह स्टेशन आया जहाँ से टिकट लिया जा सकता था, हालांकि उसके पहले भी दोनों स्टेशन पर टिकट लेने का प्रयास किया गया पर असफल रहा।
अब सुकून आया और कानपुर तक आराम से आये। आज भी छोटी सी मगर बिना टिकट यात्रा याद है। हम दोनों भाई अब भी कभी-कभी उस समय की अपनी हालत की चर्चा करके हँस लेते हैं।

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

महाशोक: डॉ चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' नहीं रहीं-ये पोस्ट शब्दकार पर


महाशोक: डॉ चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' नहीं रहीं -acharya sanjiv 'salil

ये पोस्ट शब्दकार पर प्रकाशित है। इस ब्लॉग की प्रकृति के अनुसार न होने के कारण इसे यहाँ से निकाल दिया गया है।

कृपया पहला एहसास से जुड़े सभी साथी सहयोग करें।

बार बार एक ही बात दोहराते हुए हमें भी शर्म आती है। आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगे।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

हम कब तक अपराधियों को महिमा मंडित करते रहेंगे और नयी पीढी के लिए क्या यही सन्देश है ?

इस पोस्ट को यहाँ से हटा दिया गया है क्योंकि यह इस ब्लॉग की प्रकृति से मेल नहीं खाती थी।
यह पोस्ट अभी हमने दस्तावेज़ ब्लॉग
पर प्रकाशित कर दी है।

आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगे।
आप सभी से बारम्बार आग्रह है कि ब्लॉग पर इस प्रकार की रचनाएं पोस्ट करें जो आपके जीवन में घटित किसी भी घटना, स्थिति से उपजे पहले एहसास की याद दिलाती हो।

कृपया एक बात को बार बार हमसे कहलवा कर हमें शर्मिंदा न करें। आप सभी अनुभव में हमसे बड़े हैं, कृपया सहयोग करें। ब्लॉग की प्रकृति से मेल खाती रचनाएँ ही पोस्ट करें।

बेटी के बड़े होने का पहला एहसास

होली के त्यौहार पर हर वर्ष की तरह मैंने गुंजिया और दही बड़े बनाये थे! बेटी बोली -माँ कुछ ज्यादा बना लेना ,मेरे कुछ मित्र आयेगे !मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी! ऐसे अवसरों पर दोस्तों और मित्रों का खानपान तो चलता ही रहता है !
होली के दिन करीब दस बजे दरवाजे के सामने सड़क पर जोर जोर से हौर्न बजने लगे! दूसरे ही मिनिट किवाड़ों पर थपकियाँ सुनाई दीं मानो तबले पर कहरवा बज रहा हो ! बेटी पिंकी ने दरवाजा खोला !एक -एक करके ७-८ लड़के -लड़कियां ड्राइंग -रूम में घुस आये ! मेरी हालत देखने लायक थी !अभी तक मैंने उसकी सहेलियां ही देखी थीं सहेला नहीं ! एकाएक निंद्रा टूटी -कालिज में तो लड़के -लड़कियाँ दोनों पढ़ते हैं, मित्र तो कोई भी हो सकता है !
पिंकी ने हमें उन सबसे मिलाया , कुछ खानपान करने के बाद बोली --माँ ,हम होली खेलने जा रहे हैं ,लौटने में चार -पॉँच बज जायेंगे !
एक झटका फिर लगा ! दिमाग में भूचाल आया गया - ये मिलकर होली खेलेंगे !-अन्दर के संस्कार बोल उठे !मर्यादा का गला घुटने लगा ! थूक सटकते पूछा -क्या बहुत दूर जाना है ? लौटोगी कैसे ?
तभी पिंकी का सहपाठी बोला -आंटी ,चिंता न करो! पहले आधी दर्जन बहनों को उनके घर छोड़ेंगे फिर अपने घर की ओर कदम बढायेगे !
कर्तव्य का इतना बोध

इन अनुभवों के मध्य सुमित्रा नन्द की कुछ पंक्तियाँ स्मरण हो आई --

'फिर परियों के बच्चों से हम
सुभग सीप से पंख पसार
समुन्द्र तैरते शुची ज्योंत्सना में
पकड़ इंदु के कर सुकुमार !'
--------------------------
सुधा भार्गव

अध्यापनका प्रारंभिक अनुभव

मैंने दयानंद वैदिक महाविद्यालय ,उरई में ४ सितम्बर १९७४ को अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया । मई अपने महाविद्यालय का ही छात्र रह चुका था । पहले ही दिन हमारे विभागाध्यक्ष डा ० उदय नारायण शुक्ल ने कहा ,' जाओ ,B. A.(Final) का Class पढ़ाओ। यह कक्षा सबसे अधिक शरारती छात्रों की हुआ करती थी । मै जब क्लास में गया और पढाना शुरू किया तो देखा कि छात्र -छात्राएं मंद -मंद मुस्करा रहे हैं और मेरी बात पर अधिक ध्यान नहीं दे रहे हैं। मैंने मुड़ कर Black Board की तरफ़ देखा तो वहाँ पर एक शेर लिखा था -
इश्क का जौके नज़ारा मुफ्त में बदनाम है ;
हुस्न ख़ुद बेताब है जलवे दिखाने के लिए ।
मुझे बड़ा क्रोध आया पर अपने पर काबू रखते हुए बच्चों को समझाया कि कक्षा में छात्र -छात्राएं एक परिवार की तरह होते है ,अगर कुछ बाहरी असामाजिक तत्व मौका पा कर छात्रों के लिए कुछ उलटी -सीधी बातें लिख देते हैं तो कक्षा शुरू होने से पूर्व उन्हें मिटा दिया करें। यदि कोई छात्र रँगे हाथों पकड़ा गया तो उसे कालेज से निकला भी जा सकता है। छात्रों ने मेरी बात पर सहमति जताई ।अगले दिन जब मै पुनः कक्षा में गया तो Board पर एक शेर लिखा हुआ था -
हमने तुमसे मोहब्बत की थी ,अबला समझ कर ;
तुम्हारे चचा हमें ठोक गए ,तबला समझ कर ।
मुझे बड़ी हँसी आयी और एहसास हुआ कि बच्चों ने मेरा संदेश सही ढंग से समझ लिया । उस दिन के बाद से कभी भी मेरी कक्षा कोई भी अभद्र टिप्पणी लिखी हुई नहीं मिली । आज ३५ वर्षों के बाद भी जब इस घटना की याद आती है तो बरबस ही होठों पर मुस्कान आ जाती है।

साइकिल सवारी और धरती माता की गोद


किसी भी व्यक्ति के लिए पहली बार कोई नया काम करना कितना कठिन होगा कह नहीं सकते किन्तु
हमारे लिए पहली बार साइकिल चलाना तो ऐसा था मानो हवाई जहाज चला रहे हों।
उस समय कक्षा पाँच में पढ़ा करते थे। साइकिल चलाने का शौक चढ़ा। घर में उस समय पिताजी की साइकिल थी। पिताजी चले जाते थे कचहरी और शाम को आते, तब तक हम भी अपने स्कूल से लौट आते थे। कई बार की हिम्मत भरी कोशिशों के बाद पिताजी से साइकिल चलाने की मंजूरी ले ली।
उस समय तक हमने साफ करने की दृष्टि से या फिर अपने बड़े लोगों के साथ बाजार, स्कूल आदि जाने के समय ही साइकिल को हाथ लगाया था। अब साइकिल चलानी तो आती ही नहीं थी तो बस उसे पकड़े पकड़े खाली लुड़काते ही रहे। कई दिनों के बाद साइकिल पर इतना नियंत्रण बना पाये कि वह गिरे नहीं या फिर इधर उधर झुके नहीं।
एक दिन हमारे स्कूल में किसी संस्था या फिर किसी और स्कूल के द्वारा (यह ठीक से याद नहीं) एक टेस्ट का आयोजन किया गया। इस पूरे टेस्ट में हमारे सबसे ज्यादा नम्बर आये थे। हम भी बहुत खुश थे और इसी खुशी में हमने पिताजी से साइकिल चलाने की अनुमति माँग ली।
अब क्या था? कई सप्ताह हो गये थे साइकिल को खाली लुड़काते लुड़काते। आज सोचा कि पिताजी भी खुश हैं हमारे रिजल्ट से, हो सकता है कि कुछ न कहें। बस आव देखा न ताव कोशिश करके चढ़ गये साइकिल पर। दो चार पैडल ही मारे होंगे कि साइकिल एक ओर को झुकने लगी।
यदि साइकिल चलानी आती होती तो चला पाते पर नहीं। अब हमारी समझ में नहीं आया कि क्या करें? न तो हैंडल छोड़ा जाये और न ही पैडल चलाना रोका जा रहा था। साइकिल झुकती भी जा रही थी और गति भी पकड़ती जा रही थी। गति और बढ़ती, पैडल और चलते, हैंडल और सँभलता उससे पहले ही वही हुआ जो होना था।
हम साइकिल समेत धरती माता की गोद में आ गिरे। तुरन्त खड़े हुए कि कहीं किसी ने देख न लिया हो?
कपड़े झाड़कर चुपचाप घर आकर साइकिल आराम से खड़ी कर दी। शाम को बाजार जाते समय पिताजी को उसकी कुछ बिगड़ी हालत देखकर पता चल ही गया। परिणाम पिटाई तो नहीं हुई क्योंकि पहली बार ऐसा हुआ था किन्तु साइकिल चलाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
देखा ऐसी रही हमारी पहली साइकिल सवारी।

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

हमारे दादा दादी क्यों खुश थे हमसे ज्यादा :)


 यह मुझे एक मित्र से मिला ईमेल के जरिये 

 WHY OUR GREAT GRANDPARENTS WERE HAPPIER THAN WE ARE!

 
A bottle of Bayer's heroin. Between 1890 and 1910 heroin was sold as a non-addictive substitute for morphine.
It was also used to treat children with strong cough

 Coca Wine, anyone?
Metcalf Coca Wine was one of a huge variety of wines with cocaine on the market.
Everybody used to say that it would make you happy and it would also work as a medicinal treatment.
Mariani wine
Mariani wine (1875) was the most famous Coca wine of its time.
Pope Leo XIII used to carry one bottle with him all the time.
He awarded Angelo Mariani (the producer) with aVatican gold medal.
 Maltine
Produced by Maltine Manufacturing Company of New York.
It was suggested that you should take a full glass with or after every meal...
Children should take half a glass.
A paper weight:
A paper weight promoting C.F. Boehringer & Soehne (Mannheim , Germany).
They were proud of being the biggest producers in the world of products containing Quinine and Cocaine.
Opium for Asthma:
No comments.
Cocaine tablets (1900)
All stage actors, singers teachers and preachers had to have them for a maximum performance.
Great to "smooth" the voice.

Cocaine drops for toothache

Very popular for children in 1885.
Not only did they relieve the pain, they made the children happy!
Opium for new-borns
I'm sure this would make them sleep well (not only the Opium, but 46% alcohol!)
No wonder they were called The Good Old Days!!



 



सोमवार, 7 सितंबर 2009

पूड़ी वाले कक्का

गाँव हमारी संस्कृति को आज भी प्रतिबिंबितकरते हैं , जहाँ आज भी लोग एक दूसरे के सुख -दुःख में सहभागी होते हैं । हमारे गाँव में एक बुजुर्ग महाशय थे - .सबके परिवारों की पूरी ख़बर उन्हें रहती थी । वे गाँव के चलते - फिरते विश्वकोष थे । बड़े ही अधिकार के साथ वे हर घर में पहुँच कर कुछ भी खाने -पीने का आदेश देते थे ,मजाल कि कोई भी जरा सी भी ना -नुकुर कर जाए .किसी भी परिवार के किसी भी मसले पर उनकी राय सर्वोपरि होती थी ।
उनका नाम पूडी वाले कक्का क्यों पड़ा ? इसके बारे में बुजुर्ग बताते हैं कि कक्का को विविध आयोजनों में व्यवस्था करने का बहुत शौक था । गाँव में किसी के घर कैसा भी आयोजन हो – विवाह ,रामायण या अन्य धार्मिक कार्यक्रम एवं तेरहीं आदि ,भोजन बनवाने में कक्का स्वयं जिम्मेवारी सभांल लेते थे ।कहीं का भी हलवाई आये, उसे कक्का के निर्देशन में काम करना ही पड़ता था । कक्का मनोयोग से गरम -गरम करारी पूडियां सिकवाते थे ,मजाल कि कोई पूडी कच्ची रह जाए . वे ख़ुद भी कभी -कभी इन्हें बनवाने में सहयोग भी करते थे .
समय के प्रवाह में कक्का बूढे हो गए ,पर उनकी समाजसेवा में जरा भी कमी नहीं आयी । .नये ज़माने के लड़कों को कक्का का हस्तक्षेप पसंद नहीं था । पर कक्का की सामाजिक स्वीकृति के कारण वे चुप रह जाते थे ।
गाँव के पटवारी रामखिलावन के बच्चे काफी होनहार निकले थे। बड़ा बेटा विदेश में इंजीनियर था । वह अपने गाँव अपने परिवार के साथ आया था . सारा गाँव खुशी से झूम रहा था ,आख़िर रामखिलावन के नाती के मुंडन का भोज जो था । शहर के फाइव स्टार होटल का खाने का इंतजाम था ।कक्का भी अपनी चिर -परिचित शैली में खाना बनाने वालों को निर्देश देने लगे । रामखिलावन के लड़के को यह नहीं सुहाया । उसने कक्का को झिड़क कर कहा ,” कक्का शाम को खाने के समय आ ज।” कक्का ने रामखिलावन की तरफ़ देखा ’वह भी नजर चुरा कर इधर -उधर देखने लगा ।
कक्का को पहली बार अहसास हुआ कि अब जमाना बदल गया है । उन जैसों की अब कोई पूँछ नहीं रही ।वे निढाल हो कर घर लौट आये ।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

मेरे प्रारम्भिक अनुभव

दिसम्बर २००६ को मैंने अपने ब्लॉग को ब्लॉगर पर रजिस्टर कराया  था . उस समय पता नहीं था कि हिंदी में भी ब्लॉग्गिंग प्रारंभ हो गयी है. नाम जरूर हिंदी में रखा था  "संस्कृति " उस पल में न जाने कौनसा विचार था जिसने इस नाम को सामने किया . आज देखें तो हम इसी पर विचार कर रहे हैं . कुछ इसे कविता  के रूप में कोई कहानी  के रूप में  . सभी अपना योगदान कर रहे हैं छोटे बड़े रूप में अपनी अपनी तरह से .
 मेरी मुलाकात  हुई एक कांफेरंस के सिलसिले में अनिल पुसदकर से हुई  कई बार चर्चाएं हुईं . डॉ अजय सक्सेना जो माध्यम हुए इस मुलाकात  के, ने मुझे सुझाव दिया अपना ब्लॉग लिखने  के लिए . ध्यान आया मैंने एक ब्लॉग तो रजिस्टर किया था . जाकर देखा तो वह अपनी जगह था शायद मेरी राह देखते हुए :) फिर तो जो सिलसिला शुरु हुआ जारी है. अनिल ने मुझे अपने ब्लॉग के जरिये सामने रखा ब्लॉगजगत के http://anilpusadkar.blogspot.com/2009/04/blog-post_05.html  नए दूर और पास के लोगों से जानकारी मिलने और सम्पर्क करने का . कुछ मौके ऐसे भी आ गए जिनमे तल्खी का सामना  करना पड़ा लेकिन जीवन है और उसके सतरंग. कल मुझे आमंत्रण मिला पहला अहसास से जुड़ने का, धन्यवाद इस नयी शुरुआत से जुड़ने का .

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

सहयोग के लिए एक विनम्र अपील


सदस्यों और अन्य सुधीजनों से एक विनम्र निवेदन
आप इस ब्लाग के संचालन में अपना योगदान सहर्ष देने को तैयार हुए, यह हमारे लिए हर्ष का विषय है। आप सबसे इस ब्लाग पर रचनाओं के प्रकाशन के सम्बन्ध में मात्र इतना निवेदन करना है कि रचनायें ब्लाग की प्रकृति के अनुरूप हों तो ब्लाग की सार्थकता साबित होगी।
ब्लाग पर कविता, कहानी, गजल आदि को प्रकाशित न करें। जो साथी इसके सदस्य नहीं हैं वे प्रकाशन हेतु कविता, कहानी, गजल आदि रचनाओं को कृपया न भेजें, इन्हें इस ब्लाग पर प्रकाशित कर पाना सम्भव नहीं हो सकेगा।
पहला एहसास इस उद्देश्य से बनाया गया है कि हम सभी अपने साथ पहली बार घटी हुई घटनाओं, बातों, अनुभवों आदि की खट्टी मीठी यादों का मिलकर आनन्द उठा सकें। ऐसे में हम सभी की आपस में यही अपेक्षा होती है कि इस ब्लाग पर हमें अपने साथ घटी किसी पहली स्थिति का एहसास जानने का अवसर प्राप्त होगा। ऐसा न हो पाने पर अभी नहीं तो भविष्य में आपका यह ब्लाग अपनी सार्थकता खो देगा। हमारा विचार है कि आप लोग ऐसा नहीं चाहेंगे।
अतः आप सदस्यगण और अन्य सुधी साथीजन अपनी अन्य रचनाओं को यदि प्रकाशित करवाना चाहते हैं तो उसे शब्दकार पर प्रकाशित करें अथवा शब्दकार के लिए प्रेषित करें। शब्दकार भी आपका अपना ब्लाग है।
आशा है कि आप सभी का सहयोग पूर्ववत प्राप्त होता रहेगा।

यादों के झरोखे से -अतुकांत गीत ---डॉ.श्याम गुप्त

यादों के झरोखे से -
जब तुम मुस्कुराती हो ,
मन में इक नई उमंग ,
नयी कांति बनकर आती हो।

उस साल तुम अपनी ,
नानी के यहाँ आई थीं ;
सारे मकान में ,इक-
नई रोशनी सी लाई थीं।

वो घना सा रूप,
वो घनी केश-राशि;
हर बात में घने-घने,
कहने की अभिलाषी।

उसके बाग़ की ,बगीचों की,
फूल-पत्ती नगीनों की;
हर बात थी घनेरी-घनेरी,
जैसे आदत हो हसीनों की।

गरमी की छुट्टी में -
मैं आऊँगी फ़िर;
चलते -चलते तुमने ,
कहा था होके अधीर।

अब वो गरमी आती है,
वो गरमी की छुट्टी;
शायद करली है तुमने,
मेरे से पूरी कुट्टी॥

गीतिका: आचार्य संजीव 'सलिल'

शब्द-शब्द से छंद बना तू।
श्वास-श्वास आनंद बना तू॥

सूर्य प्रखर बन जल जाएगा,
पगले! शीतल चंद बना तू॥

कृष्ण बाद में पैदा होंगे,
पहले जसुदा-नन्द बना तू॥

खुलना अपनों में, गैरों में
ख़ुद को दुर्गम बंद बना तू॥

'सलिल' ठग रहे हैं अपने ही,
मन को मूरख मंद बना तू॥

********************

बुधवार, 2 सितंबर 2009

बहुत डरते डरते बना ब्लॉग और लिखी पोस्ट


पहली बार की घटनाओं का एक मीठा सा एहसास सभी को हो यही सोच कर इस ब्लाग को प्रारम्भ किया है। अब चूँकि बात ब्लाग की हो रही है तो सोचा कि क्यों न अपने पहली बार ब्लाग पर आने के बारे में आप लोगों से बात की जाये।
घर पर इंटरनेट कनेक्शन लिए लगभग पाँच माह होने को आ गये थे। अपने काम की कुछ साइट पर घूमने के साथ साथ ऐसी साइट भी देखा करते थे जिन पर अपने लेख, कविता, कहानी आदि को भेज कर प्रकाशित करवा सकें।
किसी भी लेखक के लिए छपास रोग बहुत ही विकट रोग है। हमारे ख्याल से वे दिन तो हवा हो गये जब लोग स्वान्तः सुखाय के लिए लिखा करते थे। अब तो छपास रोग के कारण लिखना पड़ता है। यही छपास रोग हममें भी था पर शायद इसकी बहुत हद तक पूर्ति इस रूप में हो चुकी थी कि माँ सरस्वती, अपनी लेखनी और बड़ों के आशीर्वाद से उस समय से ही छपना शुरू हो गये थे जब हमें बच्चा कहा जाता था। उम्र रही होगी कोई नौ वर्ष की। तबसे कागज पर तो छपते रहे।
अब घर में इंटरनेट और लेखन भी होता हो तो छपास का कीड़ा दूसरे रूप में कुलबुलाया। बहुत खोजबीन की पर समझ नहीं आया कि इंटरनेट पर इस रोग का निदान कैसे हो? खोजी प्रवृति ने हिन्दी खोज के दौरान यह तो दिखाया कि बहुत से लोग हिन्दी में अपने मन का विषय लिखते दिख रहे हैं पर कैसे यह समझ से परे था?
एक दिन टीवी पर एक कार्यक्रम आ रहा था जिस पर चर्चा हो रही थी ब्लाग से स्म्बन्धित। बस दिमाग ने क्लिक से इस शब्द को पकड़ा। इससे पहले अमिताभ बच्चन के ब्लाग की बातें सुनते रहते थे बिगअड्डा पर जाकर पंजीकरण न करवाया। अब ब्लाग की बातें सुनी जो बनाने को लगकर तो नहीं पर सेलीब्रिटी को लेकर हो रहीं थीं।
तुरन्त कम्प्यूटर आन किया, गूगल पर जाकर सर्च किया Create Blog। अब एक दो हों तो समझ में भी आये, वहाँ तो ढेरों साइट। न समझ आये कि इसमें बनाना है, न समझ में आये कि उसमें बनाना है। इसके अलावा डर कि कहीं हमें पेमेंट न करना पड़े? हालांकि मालूम था कि आज की दुनिया में कोई चीज बिना पेमेंट के नहीं मिलती है, यदि कहीं पेमेंट के लिए क्रेडिट कार्ड वगैरह का नम्बर माँगा तो साइट बंद कर देंगे।
चक्कर था मुफत का तो फिर सर्च किया Create Free Blog। अब भी वही समस्या कहाँ जायें? दिमाग पर जोर डाल कर देखा तो बहुत सी साइट के एड्रेस पर या तो ब्लागपोस्ट लिखा मिला या फिर वर्डप्रैस। बस हिम्मत करके ब्लागर पर गये और ब्लाग बना डाला। इसके बाद भी वही ठेंठ भारतीय अंदाज कि मुफत में मिले तो दो दे दो। हमने वर्डप्रेस पर भी ब्लाग बना दिया।
अब दोनों जगह ब्लाग बन गये पर पोस्ट कहीं नहीं किया। दोनों जगह जाकर देखा पर हिम्मत नहीं हुई कुछ भी पोस्ट करने की। सोचा कहीं पोस्ट करने के बाद कोई पंजीकरण की कोई शर्त न हो, आज के जैसी किसी स्टार के निशान के नीचे छिपी हुई।
इतने के बाद अपने एक मित्र को फोन किया, अपने भाई को फोन किया। पूरी तरह से आश्वस्ति के बाद हमने अपनी पहली पोस्ट लिखी। अब यह भी समस्या थी कि इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ेंगे कैसे?
अब यह समस्या कैसे सुलझी यह बाद में क्योंकि यह भी कुछ न कुछ पहली बार करने जैसा ही मजेदार था।

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

पहला एहसास - आमंत्रण ब्लॉग से जुड़ने का



जीवन में कुछ बातें ऐसी होतीं हैं जिनको भूल पाना किसी भी रूप में सम्भव नहीं हो पाता है। इसी तरह से आपके साथ पहली बार घटित हुआ कुछ अच्छा कुछ बुरा भी ऐसा होता है जिसे हम चाह कर भी भुला नहीं पाते।
इन बीते दिनों, बीत लम्हों के साथ हम अपने जीवन को आगे बढ़ाते रहते हैं। ऐसी ही खट्टी मीठी बातों को आपस में बाँटने, गुदगुदाने, हँसाने, बीते दिनों की याद में मीठे आँसू नयनों से छलकाने को हम आप सबके सहयोग से यहाँ आ गये हैं।
पहला एहसास इसी बात का द्योतक है कि आप अपनी बातों के साथ अकेले नहीं हमें भी लेकर चलना चाहते हैं। तो आप जुड़िये हमारे साथ और बाँटिये वा पल जो आपके हैं पर अब आपके साथ हमारे भी होना चाहते हैं।
इसके दो तरीके हैं। आप इस ब्लाग के सदस्य बन कर सीधे तौर पर अपनी बातें हमसे कहें या फिर हमें मेल कर दें, हम आपकी बातों को समय समय पर पोस्ट करते रहेंगे।
सदस्य बनने के लिए आप बस हमें निम्न ई मेल पतों पर किसी एक पर या दोनों पर मेल कर दें और अपना नाम, पता, फोन, ब्लाग, मेल आदि भेज दें। हम तुरन्त आपको आपका आमंत्रण लिंक भेज देंगे।
आइये हमें भी अपनी यादों के साथ जोड़िये और अपने पहले एहसास से हम सभी को भी सराबोर करें।
सहयोग की आकांक्षा सहित
डा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
e-mail - shabdkar@gmail.com
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